हिंदी समाचार-पत्र 'दैनिक जागरण' के बेस्ट-सेलर किताबों के प्रकाशक 'हिन्द युग्म' हिंदी पाठकों के बीच अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करते जा रहे हैं । 'हिन्द युग्म' ने जहाँ युवा प्रतिभाओं को उचित सम्मान और स्थान देते आये हैं तथा बहरहाल, इनकी प्रकाशित कृतियों को जिस कदरन गाहे-बगाहे साहित्यिक चर्चाओं में शामिल किया जाकर सायास जोर पकड़ती जा रही है, इससे अनथक विचार पनपता है । हालिया उपन्यास '84' चर्चा में है, जो इस प्रकाशन की देन है, किन्तु यह उपन्यास '84' श्री सत्य व्यास की मानस उपज है यानी इस उपन्यास के वे आदरणीय उपन्यासकार हैं । यह पुस्तक श्री व्यास की प्रकाशित तीसरी महत्वपूर्ण कृति है, अन्य दो कृतियाँ, यथा- 'बनारस टॉकीज़' और 'दिल्ली दरबार' भी बेस्ट सेलिंग रही हैं । भूमिका को सीमित करते हुए हम '84' पर आते हैं । आप पाठकवृन्द भी आइये मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, युवाओं के दिलों पर राज करनेवाले उपन्यासकार श्रीमान सत्य व्यास के चर्चित व सत्य कथा से उकेरी गई उपन्यास चौरासी की एक प्रासंगिक समीक्षा........
बात गर्म-ठंड मौसम की भरी दुपहरिया की है यानी 'हंड्रेड परसेंटेज' खाँटी आज की । मैंने अचानक देखा-- अपने आँगन के साइड में कुछ चींटियों के ग्रुप अलग-अलग झुण्ड में एक दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं । मेरी दोनों आँखों की गोलकी हिली, नेत्र - स्थानिका कटोरी में व्यवस्थित हुई , प्रकाश - पुंज दृढ़ हुई, फिर मेरे दोनों भौंह के उभरे मांसल हिस्से ने मेरी कृत्रिम आँखसा यानी ऐनक यानी चश्में को लेंस सहित कर्ण-परत को सलीके से प्रतिस्थापित किया और चीटियों के झुण्ड के पीछे लग गयी । देखा-कुछ ही दूरी पर एक मृत मकड़ा पड़ा है, जो एक चींटी के वजन से हजार गुने जरूर होंगे ! कई तरफ से आये सैंकड़ों ग्रुप चीटियों के झुण्ड उसपर चारों तरफ देखते हुए सावधानीपूर्वक टूट पड़ते हैं । सावधानीपूर्ण इसलिए मानों मकड़े को कोई चोट नहीं पहुँचे और चारों तरफ देखने से तात्पर्य अपने दुश्मनों को गिद्धदृष्टि से देखकर परीक्षण करना है । फिर ये सैंकड़ों चीटियाँ मकड़े के लंबे टाँगों को अपने विविध रण-कौशल से जकड़कर मोर्चा सँभाल लेते हैं तथा एकतरफ खींचकर सुरक्षित स्थान की ओर ले जाते हैं । मेरी नजर कुछ दूरी तक पीछा करते हैं । जब मेरा / मेरी कृत्रिम आँख उर्फ़ चश्मा का 'प्रकाश वर्ष' काम करना बंद कर देता / देती है, तब मेरा पग (पाँव) बिना चाप (आवाज़) किये चींटियों के जाने की दिशा में बढ़ जाता है । लगभग 500 मीटर, लगभग का लदभग नहीं, वरन् वास्तविक में 500 मीटर आने पर मुझे लगा चींटियाँ उसे छोड़ सुस्ताने के मूड में हैं, परंतु कुछ ही क्षणों में मेरे ये विचार भ्रान्ति लगा । सही भी है, चींटियाँ आराम नहीं करते ! देखता हूँ, विपरीत दिशा में पेड़ है, जिनसे उतर कर सैकड़ों की संख्या में चींटी आकर उस मृत मकड़े के पास रुकते हैं और दोनों तरफ की चींटियाँ खड़े से होते हैं व इसी ढंग से मेरे चश्में को दिखाई पड़ते हैं । मुझे लगता है शायद, दोनों के बीच दुआ-सलाम हो रहे हैं या किसी व्यावसायिक वार्त्ता को अंजाम दिए जाने की बात उदभूत हो रही हैं ! लेकिन वार्त्ता जब यहीं पर समाप्त-सी लगी, तो लगा कोई व्यावसायिक वार्त्ता न होकर निःस्वार्थ 'पंचायती मीट' भर था । अब मेरा पीछा किये चींटी-दल वापस लौट रहे थे और अतिथ्यागत चींटी-दल मकड़े को आगे ले जाने के लिए अपने सैन्य-बल के साथ मोर्चा सम्भाल लिए थे, यहाँ समय न लेकर मैं इस वस्तुस्थिति के प्रति असमंजस में आ गया कि किनके तरफ अपना अभियान जारी रखूँ ? मैंने नया दल के साथ आँख-मिचाई शुरू की । फिर उसी भाँति उनके साथ मैं भी आगे बढ़ गया । ठीक 500 मीटर आने के बाद धरती में मुझे 2 अंगुली भर छेद दिखाई दिया । वे सब उनके पास रुक ठिठके, क्योंकि वे उस मकड़े को उस छिद्र में से प्रवेश कराकर नहीं ले जा सकते थे, वे चाहते तो मकड़े को टांग-हाथ अलगाकर व छिन्न-भिन्न कर उक्त छेद में ले जा सकते थे । खैर, वे मानवी कुकृत्य का दोहरीकरण नहीं किये, अन्यथा यहां भी लाशें टूटती ! .... फिर मैं उन चींटियों का पीछा किया, परंतु मेरा दुर्भाग्य कि मैंने चींटियों के ऐसे कृत्य का और भी अवलोकन नहीं कर सका, क्योंकि किसी पत्ता पर पहुँचे मृत मकड़े और चींटी-दल ऐसे हिल गया और उसी ढंग से बगल में बहती नाली में गिर गया । ओह, मैंने सोच लिया, यह इतिश्री हो गया, फिर मैं वापस अपने आँगन की तरफ आने को रुख कर गया । वापसी क्रम में ही मुझे लगा ..... ये चींटियाँ कहीं मुझे देख तो नहीं लिया था या उन्हें मेरा होने का अहसास तो नहीं हो गया था या वे सब किसी प्लानिंग के तहत पत्ता को नाव बनाकर कहीं दूर-सुदूर निकल तो नहीं गया ! मेरे मन में जब ऐसा क्रौंधा, तो उस तरफ जाने के लिए मैं लपका, जिधर को चींटियाँ सुसाइडकल उछाल भर नाले में पत्ते सहित कूदे थे, लेकिन वहाँ पहुँचकर मैं ऐसे चींटियों की नाव को नहीं देखा । नाली के साथ कुछ दूर और आगे बढ़ा ... और आगे बढ़ा... कहीं पत्ते वाली नाव मुझे दिखाई नहीं पड़े । अगर पत्ता 'नाव' नहीं बना होता, तो नाली पर उनका कुछ न कुछ अस्तित्व जरूर रहता ! मैंने गुलिवर के अभियान सदृश्य अभियान को गंवाया था । ....... इतना होने के बावजूद ये चींटियाँ मानवों के लिए यह सीख दे गया कि चींटियाँ की एकता के पगधूलि तक भी मानव-मात्र पहुँच नहीं सकते हैं और ठीक इसी समय कूरियर बॉय ने आकर अमेज़न का पार्सल दिया ! इसे मैं एक महानतम संयोग ही कहूंगा कि जिस चौरासी के घटना पर सत्य व्यास ने '84' नामक हिंदी उपन्यास लिख दिया, वह उपन्यास मेरे पास 31 अक्टूबर को चींटियों में एकता देखते-देखते प्राप्त हुआ और मैं उसे 31 अक्टूबर को ही पढ़ गया वैसे यह उपन्यास मेरे द्वारा पढ़ी गयी छोटी-बड़ी, कहानीनुमा और पांडुलिपियों सहित 5400 वीं उपन्यास हैं ।
31 अक्टूबर 1984 को ऐसा क्या हुआ, यह बात भारत के बच्चे-बच्चे को पता हैं, लेकिन उन्हें शायद यह नहीं पता कि इस दिन कुछ ऐसा भी हुआ, जो सिर्फ -व-सिर्फ शहर बोकारो ही जान पाया ! हाँ, यह शहर जहाँ से शुरू होती हैं एक प्रेम कहानी ! जो इस तिथि को भारत रत्न, तत्कालीन प्रधानमंत्री और लौह महिला 'इन्दिरा गांधी' की मौत के साथ, इसके विन्यस्त: क्रिकेटर मोहिन्दर अमरनाथ के स्वप्न के साथ दम तोड़ देती हैं !
लोगों ने 1984 में 'छठ' माता की प्यारुलता को देखा तो जरूर, परंतु दंगो को भी देखा, लेकिन एक इंसान जिन्होंने इन सबों से जुदा एक और चीज को देखा..., वह है 84 में घटित नायक ऋषि और नायिका मेरे हमनाम मनु की प्रेम-कहानी, जो उपजी तो बोकारो के 'चार बटे तेरह घर' में, परन्तु यह रुक गयी समुद्र के ज्वार में.... या रोक दी गयी लेखक श्री सत्य व्यास द्वारा गुमनामी भरी सूचना में !
कहानी शुरू होती है बोकारो की गलियों से जहाँ नायिका निकल पड़ती है, छतरी वाली रिक्शा पर कॉलेज जाने के लिए और नायक जो कि बाख़बर नहीं, बेखबर 'बुलेट' मोटरसाइकिल लिए फँस जाते हैं, जामयुक्त गलियों में ! कहानी बढ़ती चली जाती हैं..... महीने बीतते जाते हैं....... प्यार परवान चढ़ने लगता है और 'होठों' का मिलन हो ही जाता है, परंतु 'ओठों' का मिलाव क्या शब्द-चयन को सही कर पाते हैं या 1984 के अक्टूबर माह में शीतलता को रजाई से छुपाई जाती है या 'सत्य' असत्य हो जाते हैं..... यह तो पाठकों को पढ़ने पर ही मालूम चलेगा, परंतु पेज नं. 95 में एक मूर्खता देखने को जरूर मिलती है, एक हिंदी उपन्यास में अंग्रेजी न्यूज़पेपर का कटिंग लगाना शोभनीय नहीं लगता ! क्या बेस्टसेलर उपन्यासकार को, जो कि हिंदी अखबार 'दैनिक जागरण' से बेस्ट सेलिंग लिए हो, को कोई हिंदी पेपर कटिंग नहीं लगाना हिंदी की हीनताबोध अथवा अनुपलब्धता लिए तो नहीं है या कोई और बात है, लेकिन अक्टूबर के इस माह का आकलन लेखक को National Weather Report देखकर तो करनी ही चाहिए थी !
अगर 'महाभारत' के लिए 'वेदव्यास' के नाम आते हैं, तो 84 का भारत 'सत्य व्यास' की लेखकीय-गति में इस कदरन आगे बढ़ती है दंगों के साथ, मौत के साथ, बलात्कार को परिभाषित करते-करते अनुत्तरित हल लिए साल 84 के साथ, तो कभी-कभी साल 84 के बिना भी ! लेकिन लेखक अंततः निर्णय और निष्कर्ष हम पाठकों पर छोड़ देते हैं....... हम पाठक, जो कभी भीड़ बन 'मॉबलीचिंग' का कार्य कर देते हैं, तो कभी कुछ और घटना के संगी हो जाते हैं, क्योंकि भीड़ के कोई नाम नहीं होते, 'गर होता तो, 84 लिखा नहीं जाता !!!!!
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
बात गर्म-ठंड मौसम की भरी दुपहरिया की है यानी 'हंड्रेड परसेंटेज' खाँटी आज की । मैंने अचानक देखा-- अपने आँगन के साइड में कुछ चींटियों के ग्रुप अलग-अलग झुण्ड में एक दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं । मेरी दोनों आँखों की गोलकी हिली, नेत्र - स्थानिका कटोरी में व्यवस्थित हुई , प्रकाश - पुंज दृढ़ हुई, फिर मेरे दोनों भौंह के उभरे मांसल हिस्से ने मेरी कृत्रिम आँखसा यानी ऐनक यानी चश्में को लेंस सहित कर्ण-परत को सलीके से प्रतिस्थापित किया और चीटियों के झुण्ड के पीछे लग गयी । देखा-कुछ ही दूरी पर एक मृत मकड़ा पड़ा है, जो एक चींटी के वजन से हजार गुने जरूर होंगे ! कई तरफ से आये सैंकड़ों ग्रुप चीटियों के झुण्ड उसपर चारों तरफ देखते हुए सावधानीपूर्वक टूट पड़ते हैं । सावधानीपूर्ण इसलिए मानों मकड़े को कोई चोट नहीं पहुँचे और चारों तरफ देखने से तात्पर्य अपने दुश्मनों को गिद्धदृष्टि से देखकर परीक्षण करना है । फिर ये सैंकड़ों चीटियाँ मकड़े के लंबे टाँगों को अपने विविध रण-कौशल से जकड़कर मोर्चा सँभाल लेते हैं तथा एकतरफ खींचकर सुरक्षित स्थान की ओर ले जाते हैं । मेरी नजर कुछ दूरी तक पीछा करते हैं । जब मेरा / मेरी कृत्रिम आँख उर्फ़ चश्मा का 'प्रकाश वर्ष' काम करना बंद कर देता / देती है, तब मेरा पग (पाँव) बिना चाप (आवाज़) किये चींटियों के जाने की दिशा में बढ़ जाता है । लगभग 500 मीटर, लगभग का लदभग नहीं, वरन् वास्तविक में 500 मीटर आने पर मुझे लगा चींटियाँ उसे छोड़ सुस्ताने के मूड में हैं, परंतु कुछ ही क्षणों में मेरे ये विचार भ्रान्ति लगा । सही भी है, चींटियाँ आराम नहीं करते ! देखता हूँ, विपरीत दिशा में पेड़ है, जिनसे उतर कर सैकड़ों की संख्या में चींटी आकर उस मृत मकड़े के पास रुकते हैं और दोनों तरफ की चींटियाँ खड़े से होते हैं व इसी ढंग से मेरे चश्में को दिखाई पड़ते हैं । मुझे लगता है शायद, दोनों के बीच दुआ-सलाम हो रहे हैं या किसी व्यावसायिक वार्त्ता को अंजाम दिए जाने की बात उदभूत हो रही हैं ! लेकिन वार्त्ता जब यहीं पर समाप्त-सी लगी, तो लगा कोई व्यावसायिक वार्त्ता न होकर निःस्वार्थ 'पंचायती मीट' भर था । अब मेरा पीछा किये चींटी-दल वापस लौट रहे थे और अतिथ्यागत चींटी-दल मकड़े को आगे ले जाने के लिए अपने सैन्य-बल के साथ मोर्चा सम्भाल लिए थे, यहाँ समय न लेकर मैं इस वस्तुस्थिति के प्रति असमंजस में आ गया कि किनके तरफ अपना अभियान जारी रखूँ ? मैंने नया दल के साथ आँख-मिचाई शुरू की । फिर उसी भाँति उनके साथ मैं भी आगे बढ़ गया । ठीक 500 मीटर आने के बाद धरती में मुझे 2 अंगुली भर छेद दिखाई दिया । वे सब उनके पास रुक ठिठके, क्योंकि वे उस मकड़े को उस छिद्र में से प्रवेश कराकर नहीं ले जा सकते थे, वे चाहते तो मकड़े को टांग-हाथ अलगाकर व छिन्न-भिन्न कर उक्त छेद में ले जा सकते थे । खैर, वे मानवी कुकृत्य का दोहरीकरण नहीं किये, अन्यथा यहां भी लाशें टूटती ! .... फिर मैं उन चींटियों का पीछा किया, परंतु मेरा दुर्भाग्य कि मैंने चींटियों के ऐसे कृत्य का और भी अवलोकन नहीं कर सका, क्योंकि किसी पत्ता पर पहुँचे मृत मकड़े और चींटी-दल ऐसे हिल गया और उसी ढंग से बगल में बहती नाली में गिर गया । ओह, मैंने सोच लिया, यह इतिश्री हो गया, फिर मैं वापस अपने आँगन की तरफ आने को रुख कर गया । वापसी क्रम में ही मुझे लगा ..... ये चींटियाँ कहीं मुझे देख तो नहीं लिया था या उन्हें मेरा होने का अहसास तो नहीं हो गया था या वे सब किसी प्लानिंग के तहत पत्ता को नाव बनाकर कहीं दूर-सुदूर निकल तो नहीं गया ! मेरे मन में जब ऐसा क्रौंधा, तो उस तरफ जाने के लिए मैं लपका, जिधर को चींटियाँ सुसाइडकल उछाल भर नाले में पत्ते सहित कूदे थे, लेकिन वहाँ पहुँचकर मैं ऐसे चींटियों की नाव को नहीं देखा । नाली के साथ कुछ दूर और आगे बढ़ा ... और आगे बढ़ा... कहीं पत्ते वाली नाव मुझे दिखाई नहीं पड़े । अगर पत्ता 'नाव' नहीं बना होता, तो नाली पर उनका कुछ न कुछ अस्तित्व जरूर रहता ! मैंने गुलिवर के अभियान सदृश्य अभियान को गंवाया था । ....... इतना होने के बावजूद ये चींटियाँ मानवों के लिए यह सीख दे गया कि चींटियाँ की एकता के पगधूलि तक भी मानव-मात्र पहुँच नहीं सकते हैं और ठीक इसी समय कूरियर बॉय ने आकर अमेज़न का पार्सल दिया ! इसे मैं एक महानतम संयोग ही कहूंगा कि जिस चौरासी के घटना पर सत्य व्यास ने '84' नामक हिंदी उपन्यास लिख दिया, वह उपन्यास मेरे पास 31 अक्टूबर को चींटियों में एकता देखते-देखते प्राप्त हुआ और मैं उसे 31 अक्टूबर को ही पढ़ गया वैसे यह उपन्यास मेरे द्वारा पढ़ी गयी छोटी-बड़ी, कहानीनुमा और पांडुलिपियों सहित 5400 वीं उपन्यास हैं ।
31 अक्टूबर 1984 को ऐसा क्या हुआ, यह बात भारत के बच्चे-बच्चे को पता हैं, लेकिन उन्हें शायद यह नहीं पता कि इस दिन कुछ ऐसा भी हुआ, जो सिर्फ -व-सिर्फ शहर बोकारो ही जान पाया ! हाँ, यह शहर जहाँ से शुरू होती हैं एक प्रेम कहानी ! जो इस तिथि को भारत रत्न, तत्कालीन प्रधानमंत्री और लौह महिला 'इन्दिरा गांधी' की मौत के साथ, इसके विन्यस्त: क्रिकेटर मोहिन्दर अमरनाथ के स्वप्न के साथ दम तोड़ देती हैं !
लोगों ने 1984 में 'छठ' माता की प्यारुलता को देखा तो जरूर, परंतु दंगो को भी देखा, लेकिन एक इंसान जिन्होंने इन सबों से जुदा एक और चीज को देखा..., वह है 84 में घटित नायक ऋषि और नायिका मेरे हमनाम मनु की प्रेम-कहानी, जो उपजी तो बोकारो के 'चार बटे तेरह घर' में, परन्तु यह रुक गयी समुद्र के ज्वार में.... या रोक दी गयी लेखक श्री सत्य व्यास द्वारा गुमनामी भरी सूचना में !
कहानी शुरू होती है बोकारो की गलियों से जहाँ नायिका निकल पड़ती है, छतरी वाली रिक्शा पर कॉलेज जाने के लिए और नायक जो कि बाख़बर नहीं, बेखबर 'बुलेट' मोटरसाइकिल लिए फँस जाते हैं, जामयुक्त गलियों में ! कहानी बढ़ती चली जाती हैं..... महीने बीतते जाते हैं....... प्यार परवान चढ़ने लगता है और 'होठों' का मिलन हो ही जाता है, परंतु 'ओठों' का मिलाव क्या शब्द-चयन को सही कर पाते हैं या 1984 के अक्टूबर माह में शीतलता को रजाई से छुपाई जाती है या 'सत्य' असत्य हो जाते हैं..... यह तो पाठकों को पढ़ने पर ही मालूम चलेगा, परंतु पेज नं. 95 में एक मूर्खता देखने को जरूर मिलती है, एक हिंदी उपन्यास में अंग्रेजी न्यूज़पेपर का कटिंग लगाना शोभनीय नहीं लगता ! क्या बेस्टसेलर उपन्यासकार को, जो कि हिंदी अखबार 'दैनिक जागरण' से बेस्ट सेलिंग लिए हो, को कोई हिंदी पेपर कटिंग नहीं लगाना हिंदी की हीनताबोध अथवा अनुपलब्धता लिए तो नहीं है या कोई और बात है, लेकिन अक्टूबर के इस माह का आकलन लेखक को National Weather Report देखकर तो करनी ही चाहिए थी !
अगर 'महाभारत' के लिए 'वेदव्यास' के नाम आते हैं, तो 84 का भारत 'सत्य व्यास' की लेखकीय-गति में इस कदरन आगे बढ़ती है दंगों के साथ, मौत के साथ, बलात्कार को परिभाषित करते-करते अनुत्तरित हल लिए साल 84 के साथ, तो कभी-कभी साल 84 के बिना भी ! लेकिन लेखक अंततः निर्णय और निष्कर्ष हम पाठकों पर छोड़ देते हैं....... हम पाठक, जो कभी भीड़ बन 'मॉबलीचिंग' का कार्य कर देते हैं, तो कभी कुछ और घटना के संगी हो जाते हैं, क्योंकि भीड़ के कोई नाम नहीं होते, 'गर होता तो, 84 लिखा नहीं जाता !!!!!
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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