आज हम कुछ नया पढ़ते हैं, लेकिन उनसे पहले राष्ट्रीय अखंडता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें, हमारी तरफ से यानी मैसेंजर ऑफ आर्ट की तरफ से स्वीकारें और पढ़िये, युवा कवि और लेखक श्रीमान अंकित बाजपेई की प्रस्तुत कविता....
समझौते
एक नज़र घूर कर देखूं तो सब बिखरा दोगे ?
मैं सच कहूं जब भी, तो क्या झूठला दोगे,
फिरती रही हूं सुकूँन के खातिर मैं यहाँ-वहाँ,
मैं झुक जाऊं, तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
ये हदें मेरी ही हैं ये बंदिशें तुम पर भी हैं ?
चादरें कोनों पर फिर कैसे भीगी सी हैं,
ये सुबूत नहीं हैं मगर मैं खुद गवाह हूँ,
इनकी मेरी आवाजें भी सपनों की तरह दफ्ना दोगे,
मैं झुक जाऊं तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
भार अगर है सब तुम पर,
मैं क्यूं फिर परेशान रहूँ,
ढूंढकर ला सकते हो,
तुम मेरी फिर मुस्कान वही ?
आज हिसाब ही कर दो मेरा,
हर झेली नासमझी का,
मैं रखूंगी कुछ मांगें तब क्या समझौते ठुकरा दोगे ?
मैं झुक जाऊं तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
ये गुरूर ये अकड़ बाहर ही क्यों नहीं छोड़ आते,
बाहर ही क्यूं नहीं रख देते अपनी गालियों का थैला,
क्या बिगड़ेगा जो घर में हम तुम ही रह जायें कुछ पल,
क्या गुस्से में मेरी हर अच्छाई यूं ही बिसरा दोगे ?
मैं झुक जाऊं तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
श्रीमान अंकित बाजपेई |
समझौते
एक नज़र घूर कर देखूं तो सब बिखरा दोगे ?
मैं सच कहूं जब भी, तो क्या झूठला दोगे,
फिरती रही हूं सुकूँन के खातिर मैं यहाँ-वहाँ,
मैं झुक जाऊं, तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
ये हदें मेरी ही हैं ये बंदिशें तुम पर भी हैं ?
चादरें कोनों पर फिर कैसे भीगी सी हैं,
ये सुबूत नहीं हैं मगर मैं खुद गवाह हूँ,
इनकी मेरी आवाजें भी सपनों की तरह दफ्ना दोगे,
मैं झुक जाऊं तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
भार अगर है सब तुम पर,
मैं क्यूं फिर परेशान रहूँ,
ढूंढकर ला सकते हो,
तुम मेरी फिर मुस्कान वही ?
आज हिसाब ही कर दो मेरा,
हर झेली नासमझी का,
मैं रखूंगी कुछ मांगें तब क्या समझौते ठुकरा दोगे ?
मैं झुक जाऊं तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
ये गुरूर ये अकड़ बाहर ही क्यों नहीं छोड़ आते,
बाहर ही क्यूं नहीं रख देते अपनी गालियों का थैला,
क्या बिगड़ेगा जो घर में हम तुम ही रह जायें कुछ पल,
क्या गुस्से में मेरी हर अच्छाई यूं ही बिसरा दोगे ?
मैं झुक जाऊं तो क्या सब फिर मुझे लौटा दोगे ?
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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