''हम मर्द हैं, हमें दर्द नहीं होता !'
यह टैगलाइन, जो सदियों से चली आ रही...
कोई तो समझो हमें !
माँ' के पेट में रहने के बाद, जब आते हैं बाहर,
हमें भी मिलती है,खुली हवा
तो हम भी रोते हैं.....
बहनों ! बिल्कुल तुम्हारी तरह ।"
प्रस्तुत कविता 'अंतरराष्ट्रीय पुरूष दिवस' पर बिल्कुल सटीक व ताज़ातरीन है, वैसे इस दिवस की शुरुआत 1999 में त्रिनिदाद-टोबेगो नामक देश से हुई थी । तब से लेकर प्रत्येक वर्ष 19 नवम्बर को 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाया जा रहा है, लेकिन वक़्त में बदलाव के साथ, पुरुषों में दुश्चरित्रता कम हुई है, वहीं महिलाओं की स्थिति में #MeToo ने परिवर्तन और हलचल पैदा की है, यह एकतरह से ठीक ही है, क्योंकि पुरुष तब किसी सीमा का अतिक्रमण नहीं कर पायेंगे, किन्तु इसके साथ ही 'महिलाओं' को भी इसपर सार्थक प्रश्न उठाने चाहिए यानी कि वह रिश्ते टूटने की आड़ में गड़े मुर्दे को नहीं उखाड़ें, क्योंकि इससे दोनों पक्ष के सम्मान में तब क्षति ही क्षति प्राप्त होंगे ! हाँ, ऐसे में पत्नी 'पति' के और पति-पत्नी के बीच जीना हराम हो जाएगी !आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं सिविल इंजीनियरिंग के छात्र व कवि कुमार अमित की कविता, जो यह सुस्पष्ट करते हैं कि मर्द को भी दर्द होता है...... आइये, इस कविता को पढ़ ही डालते हैं.......
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं,
मुस्कान होती हैं चेहरे पर मेरी,
इसका अर्थ ये नहीं कि,
नहीं हैं आँसू की बूंदे आंखों में मेरी।
कहता कोई कुछ आ के जब आवेश में,
चुभने वाली बातें आ कर तैश में,
तीर आ कर जब वो दिल पर लगती हैं,
पिघल जाती अंदर की जो भी सख्ती हैं,
फिर आँखें ढूँढती किसी एक कोने को,
आहत हुआ ये दिल जो करता रोने को,
फिर जो मैं होता हूँ वो मैं दिखता नहीं,
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं।
हाँ होता है दिल मर्द के भी सीने में,
तकलीफ होती हैं हमें भी जीने में,
देते है देखकर सबको हम मुस्कुरा,
होती हैं कोशिश कि सबसे अपना गम ले छुपा,
हैं भारी भावनाएँ हममें भी बहुत सी,
बस फर्क हैं कि हम किसी को दिखाते नहीं,
अश्रुओं से मैं दिल के जख्मों को धोता नहीं,
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं।
गुजर जाता हैं जब कोई मेरी अस्मिता पर चोट कर,
मेरे नैतिक मूल्यों के मूल पर विस्फोट कर,
उस चोट से जो दर्द उठता हैं इस दिल में,
लगता हैं जैसे खड़ा हूँ बेदर्दों कि महफ़िल में,
बहाता हूँ अपने ग़मों, दर्दों को अन्धेरों में,
दिख न जायें एक भी कतरा आँसू की किसी को सवेरों में,
उजालों में उतारता हूँ अपने चेहरे से मुखोटा नहीं,
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
यह टैगलाइन, जो सदियों से चली आ रही...
कोई तो समझो हमें !
माँ' के पेट में रहने के बाद, जब आते हैं बाहर,
हमें भी मिलती है,खुली हवा
तो हम भी रोते हैं.....
बहनों ! बिल्कुल तुम्हारी तरह ।"
प्रस्तुत कविता 'अंतरराष्ट्रीय पुरूष दिवस' पर बिल्कुल सटीक व ताज़ातरीन है, वैसे इस दिवस की शुरुआत 1999 में त्रिनिदाद-टोबेगो नामक देश से हुई थी । तब से लेकर प्रत्येक वर्ष 19 नवम्बर को 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाया जा रहा है, लेकिन वक़्त में बदलाव के साथ, पुरुषों में दुश्चरित्रता कम हुई है, वहीं महिलाओं की स्थिति में #MeToo ने परिवर्तन और हलचल पैदा की है, यह एकतरह से ठीक ही है, क्योंकि पुरुष तब किसी सीमा का अतिक्रमण नहीं कर पायेंगे, किन्तु इसके साथ ही 'महिलाओं' को भी इसपर सार्थक प्रश्न उठाने चाहिए यानी कि वह रिश्ते टूटने की आड़ में गड़े मुर्दे को नहीं उखाड़ें, क्योंकि इससे दोनों पक्ष के सम्मान में तब क्षति ही क्षति प्राप्त होंगे ! हाँ, ऐसे में पत्नी 'पति' के और पति-पत्नी के बीच जीना हराम हो जाएगी !आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं सिविल इंजीनियरिंग के छात्र व कवि कुमार अमित की कविता, जो यह सुस्पष्ट करते हैं कि मर्द को भी दर्द होता है...... आइये, इस कविता को पढ़ ही डालते हैं.......
श्रीमान कुमार अमित |
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं,
मुस्कान होती हैं चेहरे पर मेरी,
इसका अर्थ ये नहीं कि,
नहीं हैं आँसू की बूंदे आंखों में मेरी।
कहता कोई कुछ आ के जब आवेश में,
चुभने वाली बातें आ कर तैश में,
तीर आ कर जब वो दिल पर लगती हैं,
पिघल जाती अंदर की जो भी सख्ती हैं,
फिर आँखें ढूँढती किसी एक कोने को,
आहत हुआ ये दिल जो करता रोने को,
फिर जो मैं होता हूँ वो मैं दिखता नहीं,
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं।
हाँ होता है दिल मर्द के भी सीने में,
तकलीफ होती हैं हमें भी जीने में,
देते है देखकर सबको हम मुस्कुरा,
होती हैं कोशिश कि सबसे अपना गम ले छुपा,
हैं भारी भावनाएँ हममें भी बहुत सी,
बस फर्क हैं कि हम किसी को दिखाते नहीं,
अश्रुओं से मैं दिल के जख्मों को धोता नहीं,
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं।
गुजर जाता हैं जब कोई मेरी अस्मिता पर चोट कर,
मेरे नैतिक मूल्यों के मूल पर विस्फोट कर,
उस चोट से जो दर्द उठता हैं इस दिल में,
लगता हैं जैसे खड़ा हूँ बेदर्दों कि महफ़िल में,
बहाता हूँ अपने ग़मों, दर्दों को अन्धेरों में,
दिख न जायें एक भी कतरा आँसू की किसी को सवेरों में,
उजालों में उतारता हूँ अपने चेहरे से मुखोटा नहीं,
मैं मर्द हूँ, प्रत्यक्ष में रोता नहीं,
इसका मतलब ये नहीं कि मुझे दर्द होता नहीं।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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