हम उन्हें लुग्दी साहित्य, सस्ता साहित्य, बाजारू साहित्य, पॉकेट बुक्सवाले साहित्य इत्यादि कहते हैं ! ऐसा क्यों कहते हैं, आजतक मुझे समझ में नहीं आया । मेरे ख्याल से यह 'साहित्य' कथित भाषाई साहित्य से बेहतर मनोरंजन प्रदान करते हैं । आज भी हम स्व. कुशवाहा कांत के मशहूर उपन्यास 'लाल रेखा' से निकल नहीं पाए हैं, जबकि यह लुग्दी साहित्य के उदाहरण है। यह कितने को पता होगा कि प्रसिद्ध हिंदी फ़िल्म 'पाकीज़ा', 'नीलकमल' आदि के लेखक गुलशन नंदा भी लुग्दी साहित्य के ही शिल्पकार थे ! हिंदी फिल्म 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' के लेखक स्व. वेदप्रकाश शर्मा इस साहित्य के उपासक थे ! तिलिस्म, हॉरर, सस्पेंस, जासूसी लेखन इस साहित्य के महत्वपूर्ण विधा है, इन विधाकारों में कई के नाम तो ब्रांड बन चुके हैं, जिनमें सर्वश्री ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज, सुरेंद्र मोहन पाठक, स्व. वेदप्रकाश शर्मा, जेम्स हेडली चेज़, शगुन शर्मा, अनिल मोहन इत्यादि शामिल हैं। आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, उपन्यासकार श्री अनिल मोहन रचित सस्पेंस व थ्रिलर उपन्यास 'खून का रिश्ता' की समीक्षा ! तो आइये, इसे हम पढ़ ही डालते हैं--
कुछ रिश्ते अजीबोगरीब हालात में बनते हैं और कुछ माँ के पेट में ही बन आते हैं । श्रीमान अनिल मोहन रचित हिंदी थ्रिलर उपन्यास 'खून का रिश्ता' पढ़ा ।
कहानी की शुरुआत एक अमीर परिवार के मुखिया के डर, भय और मस्तिष्क में उठ रहे उलझनों को शांत करने की कोशिश में व कशमकश ली आगे बढ़ती है कि 6 माह पहले मृत्यु को प्राप्त उसकी बहु अचानक जिंदा कैसे हो गयी ? .....और इस बहु द्वारा परिवार के हरेक व्यक्ति पर निशाना साधकर उसे मौत के घाट क्यों उतारे जा रहे हैं ? फिर कहानी हमें एक ऐसी मुद्दा की ओर गुमराह करती है, जिससे वास्तविक जीवन से कोई वास्ता नहीं होता है। हाँ, हम बात कर रहे हैं, आत्माओं की ।
कहानी कभी ऐसी मोड़ पर आ रुकती है, जब ऐसा लगने को होता है कि भारतीय फिल्मों में यह कहानियां कितनी बार दिखाई गयी होंगी, परंतु कहानी के कुछ दृश्य हम पाठकों को उत्तेजित तो कोई हल्के-फुल्के डर का अहसास करा जाती है !
उपन्यासकार अनिल मोहन अगर अवैज्ञानिकता लिए भटकती आत्मा को न जोड़कर उपन्यास में प्रस्तुत करते व इस कहानी को लिखते, तो पाठकों में सस्पेंस निश्चितश: बना रहता ! परंतु यदि नए पाठकगण प्रस्तुत उपन्यास पढ़ने को उत्सुक हैं, तो उसे रात में पढ़कर 'हॉरर' मिश्रित आनंद लेना चाहिए। वहीं, कथा का शेष हिस्सा गल्प और सब्जबाग है, यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नही होगा !
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
कुछ रिश्ते अजीबोगरीब हालात में बनते हैं और कुछ माँ के पेट में ही बन आते हैं । श्रीमान अनिल मोहन रचित हिंदी थ्रिलर उपन्यास 'खून का रिश्ता' पढ़ा ।
कहानी की शुरुआत एक अमीर परिवार के मुखिया के डर, भय और मस्तिष्क में उठ रहे उलझनों को शांत करने की कोशिश में व कशमकश ली आगे बढ़ती है कि 6 माह पहले मृत्यु को प्राप्त उसकी बहु अचानक जिंदा कैसे हो गयी ? .....और इस बहु द्वारा परिवार के हरेक व्यक्ति पर निशाना साधकर उसे मौत के घाट क्यों उतारे जा रहे हैं ? फिर कहानी हमें एक ऐसी मुद्दा की ओर गुमराह करती है, जिससे वास्तविक जीवन से कोई वास्ता नहीं होता है। हाँ, हम बात कर रहे हैं, आत्माओं की ।
कहानी कभी ऐसी मोड़ पर आ रुकती है, जब ऐसा लगने को होता है कि भारतीय फिल्मों में यह कहानियां कितनी बार दिखाई गयी होंगी, परंतु कहानी के कुछ दृश्य हम पाठकों को उत्तेजित तो कोई हल्के-फुल्के डर का अहसास करा जाती है !
उपन्यासकार अनिल मोहन अगर अवैज्ञानिकता लिए भटकती आत्मा को न जोड़कर उपन्यास में प्रस्तुत करते व इस कहानी को लिखते, तो पाठकों में सस्पेंस निश्चितश: बना रहता ! परंतु यदि नए पाठकगण प्रस्तुत उपन्यास पढ़ने को उत्सुक हैं, तो उसे रात में पढ़कर 'हॉरर' मिश्रित आनंद लेना चाहिए। वहीं, कथा का शेष हिस्सा गल्प और सब्जबाग है, यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नही होगा !
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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