दुनिया के हर कवयित्री या कवि की कविताओं में कुछ-न-कुछ गम या प्रेम व दर्द या प्यार की झलक जरूर ही दिखाई पड़ती हैं । यह कैसा सात्त्विक क्षण है कि प्रेम की सिर्फ झलक दिखाई पड़ती है, किन्तु गमों का पहाड़ टूट पड़ता है । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री गीता प्रजापति की एक अविस्मरणीय, किन्तु दर्देजिगर कविता ! प्रस्तुत कविता में सुश्री गीता जी ने मार्मिक शब्दों को न सिर्फ पिरोयी है, अपितु 'नफ़रत' का इतिहास दुहराया जाएगा.... कविता तो अश्रुजल निकाल ही देते हैं आखिर ! आइये, इसे पढ़ ही डालते हैं.....
चीत्कारें तब्दील हो रहीं हैं
सिसकियों के लहू में,
दो-चार बूंदें कम थी क्या ?
जो पूरी नदी उमड़ आयी --
ये नदी उफ़न रही है....
तेजी से जाने किस युद्ध के समुन्दर में समाएगी ?
जो खींच निकालेगी....
अरसे पुराने मानवता की खाल उसे,
तल में डुबो देगी भींगी हडिड्यों-सी
....और जलेगी चारों तरफ !
धधकती लाशें मिलेगी दूर तलक....
और राख ही राख --
कुछ लाशें युद्ध के समुन्दर बजबजाती रहेंगी,
वे अपने अस्तित्व को दुर्गन्ध से मिटाएंगी
जिसे सदियों तक इतिहास
घृणा करता रहेगा !
और उसी नफ़रत में जलकर फिर
इतिहास दोहराया जाएगा !
सुश्री गीता प्रजापति |
चीत्कारें तब्दील हो रहीं हैं
सिसकियों के लहू में,
दो-चार बूंदें कम थी क्या ?
जो पूरी नदी उमड़ आयी --
ये नदी उफ़न रही है....
तेजी से जाने किस युद्ध के समुन्दर में समाएगी ?
जो खींच निकालेगी....
अरसे पुराने मानवता की खाल उसे,
तल में डुबो देगी भींगी हडिड्यों-सी
....और जलेगी चारों तरफ !
धधकती लाशें मिलेगी दूर तलक....
और राख ही राख --
कुछ लाशें युद्ध के समुन्दर बजबजाती रहेंगी,
वे अपने अस्तित्व को दुर्गन्ध से मिटाएंगी
जिसे सदियों तक इतिहास
घृणा करता रहेगा !
और उसी नफ़रत में जलकर फिर
इतिहास दोहराया जाएगा !
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