'MoA' के सुधी पाठकों, समीक्षकों और शुभचिंतकों को रंगों का त्योहार 'फगुआ' की शुभकामनाएं ! जब-जब 'होली' आती है, मैं रंगों के साथ-साथ गाँव की गलियों की सफाई भी करने लगता हूँ और इस बहाने मेरे इस सुकारनामे से एक टीम बन जाती है, फिर मेरे यह व्यक्तिगत कार्य 'टीम वर्क' में तब्दील हो जाती है ! पिछले दो सालों से इस कारणश: गाँव में स्वच्छता की एक मिसाल कायम हो रही हैं।
हालाँकि 'होली' शब्द पर मुझे व्यक्तिगत आपत्ति है, क्योंकि यह 'होलिका' से अपभ्रंशित शब्द है । यह होलिका ऐतिहासिकता व पौराणिकता लिए है, जो भक्त प्रह्लाद की बुआ थी । राजनीतिक व धार्मिक कारण जो रहा हो, किन्तु पूरे देश में जब 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान जोर-शोर से आंदोलनरत है, तब एक बेटी (होलिका) के जला दिए जाने व जल जाने पर 'होली' का त्योहार मनाया जाना कतई प्रासंगिक नहीं हो सकता ! धार्मिकता लिए ऐसा हो सकता है या नहीं, इसे MoA के सुधी समीक्षकों के लिए छोड़ता हूँ ! खैर, फागुन पूर्णिमा के अवसर पर मनाई जानेवाली त्योहार 'फगुआ', जिसे होली के प्रसंगश: अद्यतित की जाती रही है । फगुआ को होली मान व इस हेतु अठखेलियाँ लिए हास-परिहास के विहित 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में आज पढ़ते हैं, सुश्री श्रुति की एतदर्थ कविता ! आइये, इसे पढ़ते हैं.....
रंगों की फुहार है
फागुन की बहार है
न किसी से वैर है, न मलाल है
चारों ओर गुलाल ही गुलाल है !
कहीं गुब्बारे तो कहीं पिचकारी
की भरमार है
भाभी-देवर का तुनकमिजाजी का प्यार है
कहीं प्रेमी-जोड़ों के मिलन की कतार है
हाँ, जी हाँ !
होली का त्योहार है !
किसी माँ की आस की उम्मीद
उसके बेटे की आने की तारीख़ है
किसी दुलहन को अपने दूल्हे से
रंग लगवाने की ख़्वाहिश है
तो कहीं दोस्तों की टोली है
कहीं बच्चों का शोर है
बस हर तरह एक ही स्वर का जोर है
हाँ, जी हां !
होली का त्योहार है !
कहीं गुजिये कड़ाही में पक रहे हैं
कहीं कचौरियां और पूरियाँ सिक रही हैं
कही ठंडाई मे भांग का नशा झूम रहा है
दिल प्रेम के रंगों और उमंगों में डूब रहा है
हर जगह बस प्यार का रंग है
जहाँ दुश्मन भी मित्र बन जाता है
हर कोई गिले शिक़वे भूल जाता है
हाँ, जी हाँ !
होली का त्योहार है !
हालाँकि 'होली' शब्द पर मुझे व्यक्तिगत आपत्ति है, क्योंकि यह 'होलिका' से अपभ्रंशित शब्द है । यह होलिका ऐतिहासिकता व पौराणिकता लिए है, जो भक्त प्रह्लाद की बुआ थी । राजनीतिक व धार्मिक कारण जो रहा हो, किन्तु पूरे देश में जब 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान जोर-शोर से आंदोलनरत है, तब एक बेटी (होलिका) के जला दिए जाने व जल जाने पर 'होली' का त्योहार मनाया जाना कतई प्रासंगिक नहीं हो सकता ! धार्मिकता लिए ऐसा हो सकता है या नहीं, इसे MoA के सुधी समीक्षकों के लिए छोड़ता हूँ ! खैर, फागुन पूर्णिमा के अवसर पर मनाई जानेवाली त्योहार 'फगुआ', जिसे होली के प्रसंगश: अद्यतित की जाती रही है । फगुआ को होली मान व इस हेतु अठखेलियाँ लिए हास-परिहास के विहित 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में आज पढ़ते हैं, सुश्री श्रुति की एतदर्थ कविता ! आइये, इसे पढ़ते हैं.....
सुश्री श्रुति |
रंगों की फुहार है
फागुन की बहार है
न किसी से वैर है, न मलाल है
चारों ओर गुलाल ही गुलाल है !
कहीं गुब्बारे तो कहीं पिचकारी
की भरमार है
भाभी-देवर का तुनकमिजाजी का प्यार है
कहीं प्रेमी-जोड़ों के मिलन की कतार है
हाँ, जी हाँ !
होली का त्योहार है !
किसी माँ की आस की उम्मीद
उसके बेटे की आने की तारीख़ है
किसी दुलहन को अपने दूल्हे से
रंग लगवाने की ख़्वाहिश है
तो कहीं दोस्तों की टोली है
कहीं बच्चों का शोर है
बस हर तरह एक ही स्वर का जोर है
हाँ, जी हां !
होली का त्योहार है !
कहीं गुजिये कड़ाही में पक रहे हैं
कहीं कचौरियां और पूरियाँ सिक रही हैं
कही ठंडाई मे भांग का नशा झूम रहा है
दिल प्रेम के रंगों और उमंगों में डूब रहा है
हर जगह बस प्यार का रंग है
जहाँ दुश्मन भी मित्र बन जाता है
हर कोई गिले शिक़वे भूल जाता है
हाँ, जी हाँ !
होली का त्योहार है !
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