कुछ किताबें जीवन की सच्चाई व अच्छाई को व्यक्त करती है, तो कुछ किताब मन में उपजी भावनाओं को । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं सुश्री स्वाति गौतम की किताब 'चारु रत्न' की समीक्षा, जिनकी यथासमृद्ध समीक्षा किए हैं, समीक्षक वेद प्रकाश जी ने । तो आइये, इसे पढ़ते हैं ---
क्या आप एक ऐसी लड़की को जानते हैं, जो उड़ना नहीं चाहती, चलना चाहती है..., मिलिए ऐसी लड़की से कुंदन से । मैं लेखिका नहीं हूँ, इसलिए लिखना नहीं जानती। कुछ लाइन चारु रत्न से ही--
बुआ एक ऐसा नाम, जो बेटी शब्द से निकलकर, जीवन भर मायके में अपना अस्तित्व ढूंढता हुआ ससुराल और मायके के बीच के जर्जर टूटे हुए पुल की मरम्मत करता रहता है पर मायके का मोह नहीं छोड़ पाता।
कुंदन की सहेली है आकांक्षा, दो बहनों में छोटी बहन, जिसने अपने पिता के कहने पर व बड़ी बहन के इनकार करने के बाद, उस लड़के से शादी की जिसे उसकी बड़ी बहन रिजेक्ट कर चुकी थी और बड़ी बहन बड़े घर की बहु बनी, तब आकांक्षा ने कुंदन से सालों बाद कहा था, वो मेरा फ़र्ज़ था ना तो सब भूल गए। दीदी मिठाई के साथ कपड़े भी लाती है। बड़ी गाड़ी में आती है। जाते टाइम बच्चों को पैसे बांट कर जाती है। कुंदन यही जीवन की सच्चाई है।
बदलाव कितना छोटा सा शब्द है और उतना ही आसान लिखने और बोलने में, पर बात जब एक लड़की की शादी के बाद की हो तो बदलाव जटिल बन जाता है, जहाँ आपको नया ही नहीं सीखना, अपने पुराने को भी बदल कर उसे नए तरीके से सीखना होता है।
शादी से पहले मिलना, बात करना इससे यह साबित नहीं होता कि आपका जीवनसाथी आपको बहुत प्यार करेगा।
11वीं व 12वीं में चीजें समझ आने लगी पर उम्र के हिसाब से तब भी मैं मोटी बुद्धि ही रही। प्यार को कभी शारीरिक संबंधों से जोड़ना जैसे मेरे लिए दूसरी दुनिया थी। आज अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों के प्यार के किस्सों की हकीकत सुनती हूँ, तो पाती हूँ क्या ट्यूबलाइट जैसे शब्द मेरे जैसे लोगों के लिए ही बने होंगे ?
काश ! कोई ऐसा होता जिसकी गलती निकाल कर मैं खुद को संतुष्ट कर लेती, सब मुझे ही समझा देते हैं, जैसे मैं कुछ जानती ही नहीं।
कुंदन की मां उसकी चिंता करते हुए कहती हैं -- ''कुंदन को सबकुछ अपने व्यवहार में लाना होगा। मेरे, तुम्हारे या आज के लिए नहीं, अपने लिए, अपने भविष्य के लिए, जहाँ मैं और तुम नहीं होंगे, होगा एक खुला समाज, जहां उसे हर समय खुदको साबित करना होगा। हर जगह वो रोकर काम नहीं चला सकती। ऐसे लोग भी कम नहीं, जो आंसुओं को नाटक बताते हैं। "
चारू रत्न के पुरूष किरदार --
विनय कुंदन से कहता है -- "अपनी मर्जी से शादी करना गलत नहीं है सिर्फ इसलिए कि तुम और तुम्हारे घर वाले नहीं चाहते।"
जब कुंदन सिद्धार्थ से कहती है -- "पापा चाहते थे मैं टीचर बनूँ। मैं वही चाहती थी जो वे चाहते थे। मैं हमेशा से वही चाहती रही हूँ, जो वे चाहते हैं।"तब सिद्धार्थ कुंदन से कहता है --''तुम ऐसा मत सोचना कुंदन, यह तुम्हारे साथ हो रहा है। हर घरेलू लड़की तुम्हारे जैसी ही होती है।"
मां-बाप की गलती निकालना, मानो भगवान् में कमी निकालना।
* अगर एक सोने की अंगूठी बोल सकती और अपनी कहानी उन दिनों से शुरू करती जब वो mine के अंदर छुपी थी, तो शायद कुछ ऐसी ही कहानी बनती - तप कर कुंदन बनने की। इस उपन्यास की नायिका भी अपने उम्र का 35 साल गुज़ार देने के बाद अपने नाम को सार्थक करती हुई कुंदन बनती है --
मेट्रो सिटी में फ्लैट, अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते दो प्यारे बच्चे, अच्छी पैकेज वाले जॉब में पति और इन सब का यानि फ्लैट, बच्चों और पति का ख्याल रखती पढ़ी लिखी गृहणी जो अपने उम्र के mid 30s में हो। इस scene से काफी लोग परिचित होंगे या relate कर पाएंगे।
गृहणी को थोड़ा और describe करते हैं --
एक ऐसे ग्रामीण परिवार में जन्म जहाँ खेत भी हो और गृह स्वामी की नौकरी भी। घर के लोग साक्षर/पढ़े लिखे हों। माइंडसेट वही टिपिकल ग्रामीण मिडिल क्लास जहाँ बेटे को नौकरी पाने के उद्देश्य से पढ़ाया जाता है और बेटी को बस उतना ही जितने में ब्याह हो जाये। शादी के पहले से लेकर बाद तक, घर की इज़्ज़त की जिम्मेदारी लड़की के कंधे पर। इज़्ज़त भी इतनी fragile की बस एक लड़के से बात करने या लड़का कहीं रोक कर जबरदस्ती प्रेम पत्र भी पकड़ा दे तो इज़्ज़त पर एक दाग।
Globalisation और आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में ऐसी ढेर सारी लड़कियाँ गाँव से शहर / मेट्रो सिटी में आ गई हैं।
इस उपन्यास की नायिका भी एक ऐसी ही 35 साल की महिला है। सबकुछ होते हुए भी जिस परिवेश में वो पली-बढ़ी होती है और जिन मान्यताओं के बीच वो बड़ी होती है, वो उसके अंदर कहीं न कहीं एक हीन भावना भी भर देती है। इन्हें जरुरत होती है एक ऐसे व्यक्ति की , चाहे वो सहेली, दोस्त, पति कोई भी हो, जो encourage कर सके .... कह सके कि yes, you can do !
ये नायिका भी ऐसी ही कमजोरी के क्षण में एक सहारा पाकर अपने जीवन की कहानी लिखने का निश्चय करती है।
अब इनकी कहानी के साथ आप उसके बचपन से लेकर अबतक की यात्रा के साथी बनते हैं। इसकी नज़र से इसके आसपास और घर-परिवार के लोगों को देखते हैं। नायिका की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये कभी भी दोषारोपण करते हुए नहीं दिखती कि फलाने के कारण ऐसा हुआ या ऐसा हुआ होते तो वैसा होता। ये आपको हर पात्र के अंदर ले जाती है, आपको दिखाती है कि फलाने के ऐसे नेचर/सोच के पीछे कारण क्या था।
नायिका कुंदन अपनी कहानी के साथ अपनी माँ सुधा की कहानी या यूँ कहें कि उनके जीवन की खिड़की भी हमारे लिए खोलती है। उसकी माँ का जीवन कई अर्थों में नायिका से विपरीत रहा है। मेट्रो सिटी में पली लड़की गाँव में ब्याह दी जाती है क्योंकि लड़के की सरकारी नौकरी है। अब इस महिला को गाँव के माहौल और ग्रामीण महिलाना पॉलिटिक्स में सेटल करना है।
तो हम दो विपरीत परिस्थितियों के अंदरुनी संघर्ष को देखते हैं जो कि विपरीत होते हुए भी कई मायने में सामान है।
कुंदन की माँ जब ये सोचती है --
"कुंदन तो बच्ची है, लेकिन जब उसके व्यवहार और उसके कम बोलने का मज़ाक उड़ा-उड़ाकर, मेरे सामने हँसा जाता है, तो मैं एक ही दिन में उसे सबकुछ सिखाने के लिए मज़बूर हो जाती हूँ चाहे उसके लिए मुझे हाथ ही क्यों न उठाना पड़े।"
तब आप कुंदन के प्रति उनके व्यवहार को समझ पाते हैं और कुंदन भी माँ के दर्द को समझती है जब उसकी माँ बच्चों को अपने सरकारी नौकरी का ऑफर लैटर दिखाकर कहती है कि मैंने घर-परिवार के लिए जॉब नहीं किया।
शादी के तुरंत बाद जॉब न कर रही लड़कियों की स्थिति अजीब हो जाती है। माँ-बाप से पैसे ले नहीं सकते क्योंकि वे पराये हो चुके और पति अभी इतना परिचित ही नहीं हुआ होता है कि उससे कुछ बोल सकें। जब कुंदन को ससुराल वाले MA में एडमिशन की सलाह देते हैं तो एडमिशन फी के पैसे के लिए उसकी दुविधा को बहुत ही बारीकी से दिखाया गया है।
इस नॉवेल की एक पात्र कुंदन की दादी भी हैं जो कि खुद ही एक सम्पन्न मायके से तालुक रखती हैं लेकिन अपने पति यानि कुंदन के दादा जी को बहुत पहले ही खो चुकी हैं। वृद्ध होती महिला और घर से छूटती उनकी पकड़ और उसका उनपे पड़ते मनोवैज्ञानिक असर को बखूबी उकेरा गया है।
मुझे इस नॉवेल की सबसे बड़ी खासियत ये लगी कि माँ और माँ के प्रेम का कहीं भी कवितीय महिमामंडन नहीं किया गया है। बिलकुल ही यथार्थ चित्रण है।
लड़के एक बारीक़ चीज़ जो देख सकते हैं । वो यह है कि एक केयरिंग डेवोटेड पति की कुछ बातें जो उसके लिए अति सामान्य होती है, लेकिन पत्नी को अंदर तक बिंध देती है। पेरेंट्स को बाल मनोविज्ञान को समझने लायक कई चीज़ें और घटनाएं इस नॉवेल मिलेंगी। ये चीज़ें काफी सामान्य है, हर घर-परिवार में होती है लेकिन कुंदन की आँख से देखने के बाद पेरेंट्स एक बार गहराई से जरूर सोचेंगे।
* कहानी की शुरुआत एक महानगर से होती है जिसमें एक लड़की आत्महत्या कर लेती है। नायिका के मन में भी यह खयाल कई बार आया है। 216 पेज जितने समय में नायिका से जुड़ा रहा सोचता रहा, ऐसी ही तो है, मेरी मां, मेरी बहन और मेरी पत्नी, क्या कभी उन्होंने सोचा होगा कि उन्हें जीना नहीं चाहिए ? यह ख्याल अंदर तक झकझोर गया। किसी महिला राइटर को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा इसलिए तुलना नहीं कर पाऊंगा, पर किताब बहुत ईमानदारी से लिखी गई है। अगर ये सब किरदार लेखिका ने डेवलप किए हैं, तो लेखिका को उसके लिए बहुत बधाई।
पुरुष को कहीं भी विलेन बनाकर, औरत के अधिकार के लिए नहीं लड़ा गया है। उपन्यास में तीन मेन औरतों के किरदार है कुंदन, कुंदन की मां सुधा, कुंदन की दादी अंगूरी देवी। कुछ लाइंस ऐसी हैं जिनको अंडरलाइन कर लेना चाहिए। तीनों किरदारों और उनके सपनों की बात करते हैं --
कुंदन से जब कोई पूछता है कि वह क्या बनना चाहती थी ? तो वो सोचती है "मां की साड़ी पहन, शीशे में अपने को देखना, पूरा सोलह सिंगार करके, शायद यही बनना चाहती थी। यही सपना सबसे सस्ता और बिना किसी परेशानी के पूरा होने वाला था।" इतनी सी लाइन में कितना कुछ कहा है लेखिका ने। सबसे सस्ता सपना....
कुंदन की मां सुधा जब कुंदन को पांच महीने का छोड़ कर चली जाती है तब वो कहती है "मैं स्वार्थी हो गई हूँ। मैं अपने और अपने सपने के बीच कुंदन को नहीं आने देना चाहती। कितना अच्छा होता वो हुई ना होती। वह मुझ पर बोझ है, तरक्की में बाधा। जब मैं सपना देखती हूं पर्स टांगे, ऊंची सैंडल, स्लीवलैस ब्लाउज, आंखों पर काला चश्मा, इस सपने में कुंदन कहां है ? कहां है उसकी मां, क्या मैं ऐसा सोचने लगी हूँ, अपने लिए थोड़ा चाहना इसमें गलत ही क्या है ?"
कुंदन की दादी अंगूरी देवी पति के गुजरने के बाद जिक्र करती हैं " बीस साल भी साथ नहीं चले। वनवास सा जीवन मैंने तपस्या करके कटा है। बिगरी में ताली बजाकर हंसने वाले बहुत होते हैं। मैंने अपने बच्चों को हमेशा कस कर रखा, बहुत सख्ती से काम लिया। मेरे बच्चे बिगड़ जाते तो दुनिया ताली बजा कर कहती, अनाथा के बच्चे तो बिगड़ने ही थे। ईश्वर से यही प्रार्थना है। जीवन में बहुत दुख देखे हैं मैंने, बस मरने से पहले कोई दुख ना दे। ऐसे ही चलती फिरती चली जाऊं। मैं किसी से सेवा नहीं करवाना चाहती, किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती।"
कुछ बातें जीवन का सार हैं जैसे --
~ जो परिस्थितियों से समझौता करने के लिए तैयार हो जाता है परिस्थितियां उस पर थोप दी जाती हैं।
~ अधिकतर जरूरत से ज्यादा प्यार दिखावा होता है।
~ अपराधी होने का बोझ इतना भारी होता है कि आप बोल भी नहीं पाते।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email-messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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