प्रतिमाह 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' वादे के मुताबिक अपने बहुप्रतीक्षित कॉलम 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में किसी क्षेत्र के गौण अथवा स्थापित विशेषज्ञों को उनसे हुए हूबहू 'साक्षात्कार' से रूबरू कराते आये हैं । इस कड़ी में हमारे गुणी-मुनि पाठकगण इस माह के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में वैसे शख़्सियत से मिलने जा रहे हैं व उनके विचारों से अवगत होने को हैं, जो हिंदी भाषाई फ़िल्म-पत्रकारिता के स्थापित व प्रतिष्ठित नाम है। यह सुनाम है -- 'दीपक दुआ' ! हाँ, सुनाम के साथ-साथ इस क्षेत्र के सुनामी अवश्य हैं, दुआ जी ! जिनका जन्म दिल्ली में हुआ है और यहीं पले-बढ़े हैं ! बचपन से ही किताबों और फिल्मों ने उन्हें अपना बना लिया है । सन 1993 में सिर्फ़ 20 वर्ष की उम्र में वह फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय हो चुके थे, जिनकी सक्रियता देखते ही बनती थी ! यही नहीं, संचार के प्रायः माध्यमों से वे जुड़े हैं। दुआ जी फिल्म पत्रकारिता पढ़ाते भी हैं और उनकी लिखी फिल्म-समीक्षाओं से एतदर्थ जन-जागरण भी होते हैं। दुआ जी को एतदर्थ 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' की दुआ लगे, ऐसी सुकामनाएँ हैं ! तो आइए, श्री दीपक दुआ से 14 गझिन प्रश्नों के सहज उत्तर 'साक्षात्कार' के बहाने उनसे जानते हैं ! तो फिर, देरी क्यों ? इसे पढ़ ही तो डालिए.....
प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट / सोशल मीडिया / प्रिंट मीडिया के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आईडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ?
उ:-
मैं 1993 से हिन्दी फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय हूँ। शुरूआत ‘जनसत्ता’ से हुई। फिल्म पत्रिकाओं ‘चित्रलेखा’ और ‘फिल्मी कलियां’ से लंबे समय तक जुड़ा रहा। साथ ही साथ बतौर फिल्म समीक्षक रेडियो, टी.वी. आदि पर भी आता रहा। फिलहाल स्वतंत्र फिल्म पत्रकार व समीक्षक के रूप में सक्रिय हूँ और संचार के विभिन्न माध्यमों से जुड़ा हुआ हूँ। साथ ही अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा’ पर भी सक्रिय हूँ।
प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:-
निम्न मध्यवर्गीय परिवार था। दिल्ली में जिस जगह हम लोग रहते थे वह बंटवारे के बाद आ बसे पंजाबी रिफ्यूजियों की बस्ती थी और आस-पड़ोस में एक परंपरा थी कि जब कोई अच्छी फिल्म आती तो माता-पिता हम बच्चों को उसे दिखाने के लिए ले जाते ! खासतौर से बाल चित्र समिति की फिल्में। खुद मेरी मां को भी पढ़ने और फिल्में देखने का चाव था। शायद वहीं से किताबें पढ़ने और सिनेमा देखने के संस्कार मेरे अंदर भी पैठने लगे थे। स्कूल के आखिरी दिनों में काफी कुछ अच्छा-बुरा पढ़ा और देखा तो लगने लगा कि अगर इस दिशा में कुछ सार्थक करना है, तो कुछ सार्थक पढ़ना और सार्थक देखना भी होगा। इसके बाद चुन-चुन कर साहित्य पढ़ना और उम्दा सिनेमा देखना शुरू किया और धीरे-धीरे सिनेमा मेरे भीतर जगह बनाने लगा।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं ?
उ:-
सिनेमा पर अपने लेखन और समीक्षाओं के जरिए आम पाठकों व दर्शकों में एक किस्म की सिनेमाई जागरूकता विकसित करने की कोशिशों में रत हूँ। उम्मीद ही नहीं, बल्कि यकीन है कि अभी तक बहुत सारे लोगों ने मेरे लेखन से लाभ पाया है। पाठकों व दर्शकों का सिनेमा के प्रति स्वाद बदला होगा, तो वही मेरी आलोचनाओं से फिल्मकारों के काम भी जरूर असर पड़ा है।
प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?
उ:-
मीडिया संस्थानों में ऊंचे पदों पर बैठे ज्यादातर लोगों की नज़रों में फिल्म पत्रकारिता एक दोयम दर्जे का काम होता था और उसे कवर करने वाला व्यक्ति संस्थान का सबसे निकृष्ट शख्स! यही कारण है कि फिल्मों की पत्रकारिता करनेवाले के बारे में आमतौर पर यह मान लिया जाता था कि वह तो मजे कर रहा है। फिल्में देख रहा हूँ, फिल्मी सितारों से मिल रहा हूँ, तो इसमें काम कहां है, मजे ही हैं। परंतु दूसरी दिक्कत फिल्मी सितारों की तरफ से हिन्दी के फिल्म पत्रकारों को अक्सर आती रही है और वह यह कि फिल्म वाले अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा तवज्जो देते रहे हैं। फिर टी.वी. चैनलों के आने के बाद प्रिंट मीडिया के पत्रकारों को पीछे रखा जाने लगा। हालांकि यह सब अब बदला है, बदल रहा है, लेकिन अभी भी पूर्वाग्रह कायम हैं।
प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?
उ:-
नहीं, ऐसी दिक्कतें नहीं आई। आयी भी तो बहुत बड़ी नहीं थी। यदि आपके अंदर प्रतिभा है, तो अवसरों और रास्तों की कमी नहीं रहती। एक बंद होता है, तो चार और खुल जाते हैं।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !
उ:-
सिनेमा के प्रति बढ़ते रुझान ने मुझे किसी और रास्ते पर जाने ही नहीं दिया! परिवार से हमेशा पूरा सहयोग और समर्थन मिला। माता-पिता, बहन, पत्नी और अब बच्चे भी मेरे इस कार्य से गर्व महसूस करते हैं।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !
उ:-
बहुत सारे लोग हैं। मेरे स्कूल, फिर कॉलेज के अध्यापक, जिन्होंने मुझे पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित किया। मेरे मित्र, जिन्होंने मुझे अवसर सुझाए, एतदर्थ रास्ते भी दिखाए। पत्रकारिता में मेरे गुरुजन, मेरे वरिष्ठ पत्रकार और सबसे बढ़ कर खुद सिनेमा जिसके अंधेरे में बैठ कर मैंने हमेशा कुछ सीखा, कुछ हासिल ही किया।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?
उ:-
अच्छे और खराब सिनेमा की समझ विकसित करने के मेरे प्रयास से कहीं न कहीं कोई न कोई असर तो जरूर पड़ रहा होगा, मुझे भरोसा है!
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-
सिनेमा अपने-आप में एक सशक्त माध्यम है। दर्शक चाहे, तो इससे बहुत कुछ सीख कर, गिरह में बांध कर ले जा सकते हैं।
प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।
उ:-
बहुत कुछ मिला। फिल्म पत्रकारिता पढ़ाने के लिए विभिन्न संस्थान बुलाते हैं। विभिन्न फिल्म समारोहों में मुझे बतौर 'जूरी' के रूप में आमंत्रित किया जाता है। हाल ही में मुझे फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड की सदस्यता भी प्रदान की गई है। यह सब उपलब्धियां ही तो हैं।
प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?
उ:-
परेशानी है भी तो अपने ही पत्रकारिता के लोगों से। बहुत सारे लोग मुफ्त में लिखवाना चाहते हैं। वह हर चीज के दाम चुका देंगे, लेकिन लेखक उन्हें मुफ्त का चाहिए। अभी भी कई नामी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित सैकड़ों आलेखों का पारिश्रमिक बकाया है।
प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हों, तो बताएँगे ?
उ:-
फिल्म पत्रकारिता पर मेरा लिखा एक आलेख 'उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय' में 'अध्याय' के रूप में पढ़ाया जाता है। फिल्म ‘दंगल’ की मेरी लिखी समीक्षा पढ़ कर हिन्दी के एक विद्वान ने मुझसे संपर्क किया और आज वह समीक्षा देश के कई विद्यालयों में एक अध्याय के तौर पर आठवीं कक्षा में पढ़ाई जाती है। साथ ही ‘स्टोरी टेल’ नामक एक डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर हिन्दी की क्लासिक फिल्मों पर मेरा ऑडियो शो ‘सुनहरा दौर विद दीपक दुआ’ आता है।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:-
कई संस्थाओं ने समय-समय पर मुझे सम्मानित किया है। हिन्दी अकादमी, दिल्ली से भी पुरस्कृत हुआ हूँ, लेकिन सबसे बड़ा सम्मान तो काम के बदले मुझे मिलने वाला स्नेह और सम्मान है, जो मेरे पाठकों ने मुझे हमेशा दिया है।
प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:-
दरअसल में हिन्दी सिनेमा और हिन्दी सिने-पत्रकारिता के लिए मुंबई ही सबसे मुफीद जगह मानी जाती है, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र शुरू से ही दिल्ली रहा है और मैंने जो कुछ भी किया, जो कुछ भी पाया, इसी शहर में रह कर ! सिनेमा को खुद समझने और समझाने के बतौर इसे व्याख्यायित करने का प्रयास जारी है, जो भविष्य में एतदर्थ जारी रहेगी !
श्रीमान दीपक दुआ |
प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट / सोशल मीडिया / प्रिंट मीडिया के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आईडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ?
उ:-
मैं 1993 से हिन्दी फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय हूँ। शुरूआत ‘जनसत्ता’ से हुई। फिल्म पत्रिकाओं ‘चित्रलेखा’ और ‘फिल्मी कलियां’ से लंबे समय तक जुड़ा रहा। साथ ही साथ बतौर फिल्म समीक्षक रेडियो, टी.वी. आदि पर भी आता रहा। फिलहाल स्वतंत्र फिल्म पत्रकार व समीक्षक के रूप में सक्रिय हूँ और संचार के विभिन्न माध्यमों से जुड़ा हुआ हूँ। साथ ही अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा’ पर भी सक्रिय हूँ।
प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:-
निम्न मध्यवर्गीय परिवार था। दिल्ली में जिस जगह हम लोग रहते थे वह बंटवारे के बाद आ बसे पंजाबी रिफ्यूजियों की बस्ती थी और आस-पड़ोस में एक परंपरा थी कि जब कोई अच्छी फिल्म आती तो माता-पिता हम बच्चों को उसे दिखाने के लिए ले जाते ! खासतौर से बाल चित्र समिति की फिल्में। खुद मेरी मां को भी पढ़ने और फिल्में देखने का चाव था। शायद वहीं से किताबें पढ़ने और सिनेमा देखने के संस्कार मेरे अंदर भी पैठने लगे थे। स्कूल के आखिरी दिनों में काफी कुछ अच्छा-बुरा पढ़ा और देखा तो लगने लगा कि अगर इस दिशा में कुछ सार्थक करना है, तो कुछ सार्थक पढ़ना और सार्थक देखना भी होगा। इसके बाद चुन-चुन कर साहित्य पढ़ना और उम्दा सिनेमा देखना शुरू किया और धीरे-धीरे सिनेमा मेरे भीतर जगह बनाने लगा।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं ?
उ:-
सिनेमा पर अपने लेखन और समीक्षाओं के जरिए आम पाठकों व दर्शकों में एक किस्म की सिनेमाई जागरूकता विकसित करने की कोशिशों में रत हूँ। उम्मीद ही नहीं, बल्कि यकीन है कि अभी तक बहुत सारे लोगों ने मेरे लेखन से लाभ पाया है। पाठकों व दर्शकों का सिनेमा के प्रति स्वाद बदला होगा, तो वही मेरी आलोचनाओं से फिल्मकारों के काम भी जरूर असर पड़ा है।
प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?
उ:-
मीडिया संस्थानों में ऊंचे पदों पर बैठे ज्यादातर लोगों की नज़रों में फिल्म पत्रकारिता एक दोयम दर्जे का काम होता था और उसे कवर करने वाला व्यक्ति संस्थान का सबसे निकृष्ट शख्स! यही कारण है कि फिल्मों की पत्रकारिता करनेवाले के बारे में आमतौर पर यह मान लिया जाता था कि वह तो मजे कर रहा है। फिल्में देख रहा हूँ, फिल्मी सितारों से मिल रहा हूँ, तो इसमें काम कहां है, मजे ही हैं। परंतु दूसरी दिक्कत फिल्मी सितारों की तरफ से हिन्दी के फिल्म पत्रकारों को अक्सर आती रही है और वह यह कि फिल्म वाले अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा तवज्जो देते रहे हैं। फिर टी.वी. चैनलों के आने के बाद प्रिंट मीडिया के पत्रकारों को पीछे रखा जाने लगा। हालांकि यह सब अब बदला है, बदल रहा है, लेकिन अभी भी पूर्वाग्रह कायम हैं।
प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?
उ:-
नहीं, ऐसी दिक्कतें नहीं आई। आयी भी तो बहुत बड़ी नहीं थी। यदि आपके अंदर प्रतिभा है, तो अवसरों और रास्तों की कमी नहीं रहती। एक बंद होता है, तो चार और खुल जाते हैं।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !
उ:-
सिनेमा के प्रति बढ़ते रुझान ने मुझे किसी और रास्ते पर जाने ही नहीं दिया! परिवार से हमेशा पूरा सहयोग और समर्थन मिला। माता-पिता, बहन, पत्नी और अब बच्चे भी मेरे इस कार्य से गर्व महसूस करते हैं।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !
उ:-
बहुत सारे लोग हैं। मेरे स्कूल, फिर कॉलेज के अध्यापक, जिन्होंने मुझे पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित किया। मेरे मित्र, जिन्होंने मुझे अवसर सुझाए, एतदर्थ रास्ते भी दिखाए। पत्रकारिता में मेरे गुरुजन, मेरे वरिष्ठ पत्रकार और सबसे बढ़ कर खुद सिनेमा जिसके अंधेरे में बैठ कर मैंने हमेशा कुछ सीखा, कुछ हासिल ही किया।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?
उ:-
अच्छे और खराब सिनेमा की समझ विकसित करने के मेरे प्रयास से कहीं न कहीं कोई न कोई असर तो जरूर पड़ रहा होगा, मुझे भरोसा है!
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-
सिनेमा अपने-आप में एक सशक्त माध्यम है। दर्शक चाहे, तो इससे बहुत कुछ सीख कर, गिरह में बांध कर ले जा सकते हैं।
प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।
उ:-
बहुत कुछ मिला। फिल्म पत्रकारिता पढ़ाने के लिए विभिन्न संस्थान बुलाते हैं। विभिन्न फिल्म समारोहों में मुझे बतौर 'जूरी' के रूप में आमंत्रित किया जाता है। हाल ही में मुझे फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड की सदस्यता भी प्रदान की गई है। यह सब उपलब्धियां ही तो हैं।
प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?
उ:-
परेशानी है भी तो अपने ही पत्रकारिता के लोगों से। बहुत सारे लोग मुफ्त में लिखवाना चाहते हैं। वह हर चीज के दाम चुका देंगे, लेकिन लेखक उन्हें मुफ्त का चाहिए। अभी भी कई नामी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित सैकड़ों आलेखों का पारिश्रमिक बकाया है।
प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हों, तो बताएँगे ?
उ:-
फिल्म पत्रकारिता पर मेरा लिखा एक आलेख 'उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय' में 'अध्याय' के रूप में पढ़ाया जाता है। फिल्म ‘दंगल’ की मेरी लिखी समीक्षा पढ़ कर हिन्दी के एक विद्वान ने मुझसे संपर्क किया और आज वह समीक्षा देश के कई विद्यालयों में एक अध्याय के तौर पर आठवीं कक्षा में पढ़ाई जाती है। साथ ही ‘स्टोरी टेल’ नामक एक डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर हिन्दी की क्लासिक फिल्मों पर मेरा ऑडियो शो ‘सुनहरा दौर विद दीपक दुआ’ आता है।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:-
कई संस्थाओं ने समय-समय पर मुझे सम्मानित किया है। हिन्दी अकादमी, दिल्ली से भी पुरस्कृत हुआ हूँ, लेकिन सबसे बड़ा सम्मान तो काम के बदले मुझे मिलने वाला स्नेह और सम्मान है, जो मेरे पाठकों ने मुझे हमेशा दिया है।
प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:-
दरअसल में हिन्दी सिनेमा और हिन्दी सिने-पत्रकारिता के लिए मुंबई ही सबसे मुफीद जगह मानी जाती है, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र शुरू से ही दिल्ली रहा है और मैंने जो कुछ भी किया, जो कुछ भी पाया, इसी शहर में रह कर ! सिनेमा को खुद समझने और समझाने के बतौर इसे व्याख्यायित करने का प्रयास जारी है, जो भविष्य में एतदर्थ जारी रहेगी !
"आप यूं ही हँसते रहें, मुस्कराते रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !
नमस्कार दोस्तों !
मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !
हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com
वाह !
ReplyDeleteबेहतरीन साक्षात्कार !
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