हम जितने ही सुविधाओं से लेश होंगे, उतने ही हम धरती, प्रकृति व पर्यावरण को धोखा देते रहेंगे ! हरे पेड़-पौधे को काटकर उनसे उत्तम लकड़ी निकालकर सुसज्जित पलंग बनाकर उसपर अय्याशी करते हैं, यह प्रकृति के साथ धोखा नहीं तो क्या है ? यहीं तक नहीं, हम खेतों की जमीन पर ऊँचे इमारत बनाते हैं, अब तो मॉल बनाये जा रहे हैं । शहरों की बात जो हो, अब गाँवों में भी लेशमात्र ही पेड़-पौधे दिखाई पड़ते हैं । ऐसे में पेड़ बचाने की सौगंध व उपक्रम नीरा बेमानी लगती है । वैसे हम 1992 से प्रतिवर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं, जो महज़ खानापूर्ति रह जाता है । पेड़-पौधों के अभाव में नित्य-नियमित पूरे संसार में 'ग्लोबल वार्मिंग' की जोर ऐसी है कि यह एक दिन पूरी धरती को जीवनशून्य कर देगा। गाड़ियों से निःसृत उत्सर्जन भी प्रदूषित हो हमारी हरियाली को समाप्त कर रही है । धरती को 'धरती' बने रहने के लिए उन्हें सिर्फ हरियाली चाहिए और कुछ नहीं ! क्या हमें कभी ऐसा महसूस नहीं होता कि जंगलों के बीच से गुजर रहे हैं और मोर-मोरनी अपने पंखों को छाते जैसे फैलाकर नाच रहे हैं-- सचमुच इस कल्पना से मन-मयूर नाच उठता है । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं स्वामी विवेकानंदकी पुस्तक ज्ञानयोग की लघु प्रेरक समीक्षा...
#लप्रेस #लघु_प्रेरक_समीक्षा
ज्ञान प्राप्त करने की कोई परिभाषा नहीं है। इस किताब को पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि इंसानी मन में उठ रहे अधिकतर सवालों का जवाब है पुस्तक 'ज्ञानयोग' में ।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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ज्ञान प्राप्त करने की कोई परिभाषा नहीं है। इस किताब को पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि इंसानी मन में उठ रहे अधिकतर सवालों का जवाब है पुस्तक 'ज्ञानयोग' में ।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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