नई वाली हिंदी की धाकड़ गेंदबाज और बल्लेबाज श्रीमान सत्य व्यास की अब तक तीन किताबें आ चुकी हैं । आइये, आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, लेखक सत्य व्यास की किताब बनारस टॉकीज और 84 के लिये समीक्षक क्षितिज भट्ट द्वारा लिखी गयी लघु प्रेरक समीक्षा...
दो पुस्तकों की समीक्षा । दोनों पुस्तकें 'नई वाली हिन्दी' के प्रसिद्ध लेखक सत्य व्यास जी की हैं। अगर सत्य व्यास जी की पुस्तकों की बात करें, तो अब तक क्रमशः बनारस टाॅकीज़, दिल्ली दरबार और चौरासी प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से अभी तक दिल्ली दरबार से मेरा कोई संबंध नहीं बन पाया है।
अब शेष दो पुस्तकों पर आते हैं। दोनों वन सिटिंग बुक्स हैं। दो से तीन घंटे में खत्म की जा सकती हैं। परस्पर तुलना करें तो चौरासी की कहानी बनारस टाॅकीज़ से कम जगह लेती है, लेकिन समरसता दोनों में समान है। भाषा नई वाली हिन्दी यानी आम बोलचाल की भाषा ही है हालाँकि कई जगह क्षेत्रीय आंचलिक भाषाओं का उपयोग है, जो एक तरफ वास्तविकता का पुट देती हैं तो दूसरी तरफ वाक्य का अर्थ समझने में जटिलता उत्पन्न करती हैं।
बनारस टाॅकीज़
सत्य व्यास जी से मेरा पहला साक्षात्कार बनारस टाॅकीज़ के माध्यम से ही हुआ। बीएचयू के भगवानदास हाॅस्टल को आधार बना यह कहानी बुनी गई है। यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि उपन्यास के अनुसार इस हाॅस्टल में कानून के विद्यार्थी रहते हैं और सत्य व्यास जी ने भी बीएचयू से लॉ की डिग्री प्राप्त की है।
उपन्यास की शुरूआत उसके पात्रों की विशेषता बताने के साथ होती है और फिर कहानी आगे बढ़ती है। कहानी में कॉलेज की जिन्दगी के हर रंग हैं, हँसी-मजाक है, बेफिक्री है, इश्क़ है, शरारतें हैं, कॅरियर की चिंता है, क्रिकेट है, बनारस का रंग है यानी कुल जमा एक कॉलेज पढ़ने वाला विद्यार्थी अपनी जिन्दगी में जो सब कुछ चाहता है, वो सब कहानी में है पर इसी को पढ़कर यह भी लगता है कि यह वास्तविकता से कोसों दूर है, क्योंकि कॉलेज का विद्यार्थी यह सब चाहता जरूर है पर उसे इस अनुपात में वो सब मिलता नहीं है, जैसे कहानी में मिल गया है। मेरा कॉलेज के एक वर्ष में खुद का अनुभव तो यही कहता है। हो सकता है कि लेखक के साथ इससे अलग स्थिति रही हो।
बहरहाल, लगभग आधा उपन्यास पढ़ने के बाद मेरे मन में असमंजस की स्थिति थी, यानी उपन्यास में मजा बहुत आ रहा था पर यह समझना मुश्किल था कि कहानी जा किस दिशा में रही है। सब कुछ कॉलेज की जिन्दगी ही दिखा रहा था पर तभी शहर के एक मंदिर में धमाका होता है और कहानी अपने वास्तविक कथानक में आ जाती है। उसके बाद पीछे के पृष्ठ ज्यादा बेहतर ढंग से समझ में आते हैं। पता चलता है कि हाॅस्टल में सिर्फ मस्ती और पढ़ाई ही नहीं 'कुछ और'भी हो रहा था। अब यह 'कुछ और' क्या है, इसका जवाब आपको उपन्यास ही देगा !
चौरासी
सन् 1984 को अगर राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी अत्याधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, तो उसका कारण ऑपरेशन ब्लूस्टार, इंदिरा गाँधी की हत्या तथा सिख-विरोधी दंगे हैं और इन्हीं तीनों के इर्द-गिर्द 'चौरासी' की कहानी बुनी गई है।
कहानी का प्लॉट बोकारो में है और बोकारो ही अपनी कहानी भी सुना रहा है। कहानी ऑपरेशन ब्लूस्टार से कुछ वक्त पहले से शुरू होती है। मुख्य कथानक में एक सिख युवती और एक हिन्दू युवक को प्रेम हो जाता है जबकि पार्श्व कथानक में देश के तात्कालिक हालत चलते रहते हैं। मेरी दृष्टि में मुख्य कथानक से ज्यादा पार्श्व कथानक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह ना केवल लेखक के अन्वेषण को प्रतिबिंबित करता है,अपितु तात्कालिक स्थितियों का एक खाँचा भी खींचता हुआ चलता है और बताता है कि उस वक्त लोग क्या सोच रहे थे, कइयों ने परिस्थिति का कैसे फायदा उठाया और कैसे भीड़ लोगों की हत्या व लूटपाट कर रही थी !
बहरहाल कहानी ऑपरेशन ब्लूस्टार के पहले से शुरू होकर इंदिरा गाँधी की हत्या तक पहुँचती है और पूरा देश उबल पड़ता है। जगह-जगह सिखों की हत्या की जाती है जिसे उपन्यास के अनुसार राजनीतिक व प्रशासनिक सहयोग प्राप्त था। ऐसी स्थिति में प्रेम में पड़ी सिख युवती और उसके परिवार के जीवन पर भी संकट आ जाता है और तब उसका प्रेमी उसे बचाने का प्रयास करता है। प्रेमी, अपनी प्रेमिका और उसके परिवार को बचा पाएगा या नहीं ? अगर बचा दिया तो उनका मिलन होगा या नहीं ? होगा तो कैसे ? नहीं होगा तो क्यों नहीं होगा ? ऐसे अनेक सवालों के जवाब आपको उपन्यास में मिलेंगे।
हालाँकि जो लोग इतिहास व राजनीति में अधिक रुचि नहीं रखते, उन्हें यह उपन्यास निराश कर सकता है क्योंकि बिना 1984 की स्थिति में उतरे आप इस कहानी को शायद ही समझ पाएँ।
अब अंत में यही कहूँगा कि दोनों उपन्यास कम-से-कम एक बार पढ़े जाने योग्य तो अवश्य हैं और अगर फिर मन किया तो दोबारा भी पढ़ लीजिएगा।
दो पुस्तकों की समीक्षा । दोनों पुस्तकें 'नई वाली हिन्दी' के प्रसिद्ध लेखक सत्य व्यास जी की हैं। अगर सत्य व्यास जी की पुस्तकों की बात करें, तो अब तक क्रमशः बनारस टाॅकीज़, दिल्ली दरबार और चौरासी प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से अभी तक दिल्ली दरबार से मेरा कोई संबंध नहीं बन पाया है।
अब शेष दो पुस्तकों पर आते हैं। दोनों वन सिटिंग बुक्स हैं। दो से तीन घंटे में खत्म की जा सकती हैं। परस्पर तुलना करें तो चौरासी की कहानी बनारस टाॅकीज़ से कम जगह लेती है, लेकिन समरसता दोनों में समान है। भाषा नई वाली हिन्दी यानी आम बोलचाल की भाषा ही है हालाँकि कई जगह क्षेत्रीय आंचलिक भाषाओं का उपयोग है, जो एक तरफ वास्तविकता का पुट देती हैं तो दूसरी तरफ वाक्य का अर्थ समझने में जटिलता उत्पन्न करती हैं।
बनारस टाॅकीज़
सत्य व्यास जी से मेरा पहला साक्षात्कार बनारस टाॅकीज़ के माध्यम से ही हुआ। बीएचयू के भगवानदास हाॅस्टल को आधार बना यह कहानी बुनी गई है। यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि उपन्यास के अनुसार इस हाॅस्टल में कानून के विद्यार्थी रहते हैं और सत्य व्यास जी ने भी बीएचयू से लॉ की डिग्री प्राप्त की है।
उपन्यास की शुरूआत उसके पात्रों की विशेषता बताने के साथ होती है और फिर कहानी आगे बढ़ती है। कहानी में कॉलेज की जिन्दगी के हर रंग हैं, हँसी-मजाक है, बेफिक्री है, इश्क़ है, शरारतें हैं, कॅरियर की चिंता है, क्रिकेट है, बनारस का रंग है यानी कुल जमा एक कॉलेज पढ़ने वाला विद्यार्थी अपनी जिन्दगी में जो सब कुछ चाहता है, वो सब कहानी में है पर इसी को पढ़कर यह भी लगता है कि यह वास्तविकता से कोसों दूर है, क्योंकि कॉलेज का विद्यार्थी यह सब चाहता जरूर है पर उसे इस अनुपात में वो सब मिलता नहीं है, जैसे कहानी में मिल गया है। मेरा कॉलेज के एक वर्ष में खुद का अनुभव तो यही कहता है। हो सकता है कि लेखक के साथ इससे अलग स्थिति रही हो।
बहरहाल, लगभग आधा उपन्यास पढ़ने के बाद मेरे मन में असमंजस की स्थिति थी, यानी उपन्यास में मजा बहुत आ रहा था पर यह समझना मुश्किल था कि कहानी जा किस दिशा में रही है। सब कुछ कॉलेज की जिन्दगी ही दिखा रहा था पर तभी शहर के एक मंदिर में धमाका होता है और कहानी अपने वास्तविक कथानक में आ जाती है। उसके बाद पीछे के पृष्ठ ज्यादा बेहतर ढंग से समझ में आते हैं। पता चलता है कि हाॅस्टल में सिर्फ मस्ती और पढ़ाई ही नहीं 'कुछ और'भी हो रहा था। अब यह 'कुछ और' क्या है, इसका जवाब आपको उपन्यास ही देगा !
चौरासी
सन् 1984 को अगर राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी अत्याधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, तो उसका कारण ऑपरेशन ब्लूस्टार, इंदिरा गाँधी की हत्या तथा सिख-विरोधी दंगे हैं और इन्हीं तीनों के इर्द-गिर्द 'चौरासी' की कहानी बुनी गई है।
कहानी का प्लॉट बोकारो में है और बोकारो ही अपनी कहानी भी सुना रहा है। कहानी ऑपरेशन ब्लूस्टार से कुछ वक्त पहले से शुरू होती है। मुख्य कथानक में एक सिख युवती और एक हिन्दू युवक को प्रेम हो जाता है जबकि पार्श्व कथानक में देश के तात्कालिक हालत चलते रहते हैं। मेरी दृष्टि में मुख्य कथानक से ज्यादा पार्श्व कथानक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह ना केवल लेखक के अन्वेषण को प्रतिबिंबित करता है,अपितु तात्कालिक स्थितियों का एक खाँचा भी खींचता हुआ चलता है और बताता है कि उस वक्त लोग क्या सोच रहे थे, कइयों ने परिस्थिति का कैसे फायदा उठाया और कैसे भीड़ लोगों की हत्या व लूटपाट कर रही थी !
बहरहाल कहानी ऑपरेशन ब्लूस्टार के पहले से शुरू होकर इंदिरा गाँधी की हत्या तक पहुँचती है और पूरा देश उबल पड़ता है। जगह-जगह सिखों की हत्या की जाती है जिसे उपन्यास के अनुसार राजनीतिक व प्रशासनिक सहयोग प्राप्त था। ऐसी स्थिति में प्रेम में पड़ी सिख युवती और उसके परिवार के जीवन पर भी संकट आ जाता है और तब उसका प्रेमी उसे बचाने का प्रयास करता है। प्रेमी, अपनी प्रेमिका और उसके परिवार को बचा पाएगा या नहीं ? अगर बचा दिया तो उनका मिलन होगा या नहीं ? होगा तो कैसे ? नहीं होगा तो क्यों नहीं होगा ? ऐसे अनेक सवालों के जवाब आपको उपन्यास में मिलेंगे।
हालाँकि जो लोग इतिहास व राजनीति में अधिक रुचि नहीं रखते, उन्हें यह उपन्यास निराश कर सकता है क्योंकि बिना 1984 की स्थिति में उतरे आप इस कहानी को शायद ही समझ पाएँ।
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नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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