आजीवन 'दमा' रोगी और डायबिटीज़ के मरीज़ रहे क्षीणकायी 'जयप्रकाश' ने तो लौह महिला इंदिरा गाँधी को पस्त कर दिए थे । आपात काल का विरोध और 'सम्पूर्ण क्रांति' का मंत्र का उच्चारण करनेवाले को न केवल भारतीय, अपितु विदेशी राजनयिक भी जे.पी. नाम से ताउम्र पुकारते रहे, वो भी प्यार से ! 11 अक्टूबर को उनका जन्मदिवस है । अक्टूबर माह उनसे संबंधित भी रहा है..... जन्मदिवस, मृत्यु दिवस और विवाह तिथि भी अक्टूबर माह में लिए ! बिहार और गुजरात में छात्रों के आंदोलन को सम्पूर्ण भारत में प्रसरण करनेवाले जे.पी. ने और ही सिंहनाद कर इंदिरा-सत्ता की चूलें हिलाकर रख दिये ! उस समय बिहार में जे.पी. का मार्च पास्ट पटना में आंदोलनरत थे और बिहार में कांग्रेस की सरकार थी । बिहार के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर थे, उनके आदेश पर उनकी पुलिस ने आंदोलनरत जे.पी. पर लाठीचार्ज कर दिए । प्रसिद्ध चित्रकार श्री रघु राय ने पुलिस द्वारा लाठी से मार खाते 'जे.पी.' के चित्र को अपने कैमरे से खींचा है, जो ऐतिहासिक है । इसी पिटाई से धीरे-धीरे जे.पी. अस्वस्थ होते चले गए और अंततः मृत्यु को प्राप्त हुए । आजादी से पहले जे.पी. समाजवादी होते हुए भी क्रांतिकारी 'स्वतन्त्रता सेनानी' थे । हज़ारीबाग़ जेल से फरार, 'आज़ाद दस्ता' का गठन, नेपाल के जंगलों में विचरण इत्यादि भूमिकाओं से आबद्ध जे.पी. ने आज़ादी के बाद भी स्व-सत्ता के 'डिक्टेटर' के विरुद्ध भिड़ पड़े और इंदिरा गाँधी को सत्ताच्युत कर डाले । जनता पार्टी की सरकार होने पर सबकोई चाहते थे, वे देश के प्रधानमंत्री बने, किन्तु गाँधी की तरह उन्होंने भी सत्ता ठुकरा दिए ! जब 'श्री अटल बिहारी वाजपेयी' की सरकार केंद्र में आई, तब जे.पी. के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से मरणोपरांत विभूषित किया गया । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं भारतरत्न जयप्रकाश नारायण पर लिखी हुई श्रीमान क्षितिज भट्ट की अद्भुत कविता,तो आइए, इसे हम पढ़ ही डालते हैं.....
हाँ ! मैं जयप्रकाश हूँ
सत्ता की आँधी के लिए मैं इंकलाब हूँ
मठाधीशों में मैं लोकनायक जयप्रकाश हूँ।
जब जब तूती बोली है शासन में फासीवाद की
जब जब उठी आवाज हिन्द में नक्सलवाद की
जब जब आई है आवाज परिवर्तन-हुंकार की
कभी भूदान, कभी सम्पूर्ण क्रांति के राग की
तब तब उठा सामने आया प्रकाश का मैं राग हूँ
गाँधी पर रखता विश्वास हूँ,
हाँ ! मैं जयप्रकाश हूँ।
जब दमक रहा था आभामंडल नेहरू के प्रकाश से
लोहिया दे रहे थे उन्हें चुनौती, लोकतंत्र के विश्वास से
मैं भटक रहा था कहीं दूर दस्युओं के आवासों में
लगा हुआ था आत्मसमर्पण करवाने में प्रयासों से।
वही दौर था, वही वक्त था, 'विनोदा' का प्रभाव भी था
भूदान से जुड़ना ही था, वो मेरा स्वभाव ही था
मैं निरंतर मदमस्त हो समाजवाद को बुन रहा था
सक्रिय राजनीति से थोड़ा दूरी पर ही चल रहा था।
तब भी थी लोगों की इच्छा, मैं नेहरू का उत्तराधिकार लूँ
चाचा जैसे ही गद्दी छोडें, मैं सिंहासन स्वीकार लूँ
पर मेरी आस्था गाँधी में अब भी उतनी ही बाकी थी
सिंहासन की धूमिल आभा, मेरे लिए नाकाफी थी।
मैं लगा रहा कार्यों में अपने पर नेताओं का दौर गया
नेहरू गए, शास्त्री गए, युद्धों का भी एक दौर गया
नेहरू की बिटिया अब हिन्दुस्तान की रानी थी
लोकतंत्र से उसकी ठन गई, कर रही मनमानी थी।
भ्रष्टाचार चरम पर था, व्यक्तिवाद प्रभावी था
इंदिरा-संजय का नाम ही बस लोकतंत्र का स्वामी था
चिमन भाई गुजरात में खुदको राजा ही समझते थे
जनता की उठती आवाजों का मतलब नहीं समझते थे।
लेकिन छात्र शक्ति, जन शक्ति बनकर सड़कों पर आने वाली थी
अबकी बार जनता फिर से सिंहासन हिलाने वाली थी
तो नेतृत्व का अभाव वक्त को अब बिल्कुल स्वीकार ना था
और देश में कहीं कोई दूसरा 'जयप्रकाश' ना था।
मैंने थामी बागडोर अब आंदोलन को बढ़ना था
सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल मुल्क में अब तो पक्का बजना था
चिमन भाई की गद्दी गई, गुजरात में आवाज उठी
पटना से बढ़ती हुई, अब दिल्ली तक आवाज उठी।
पूरा देश उठ रहा था, मन सबका आक्रोश में था
सत्ता का मातहत तक अब हमारे साथ में था
आवाजें बढ़ने में थी, कुर्सियाँ हिलने में थी
लोकतंत्र की ताकत मुल्क को, अब बस दिखने ही को थी।
लेकिन बदला वक्त तभी, जम्हूरियत शहीद हुई
भारत की संपूर्ण प्रतिष्ठा आपातकाल से ढेर हुई
उसूलों को फाँसी दे दी तानाशाही शासन ने
मुल्क की बिगड़ी तकदीर 'संजय' के प्रशासन में।
संविधान को मिली तिलांजलि, कानून का बंटाधार हुआ
जो भी माँ-बेटे ने चाहा, उस पर उनका अधिकार हुआ
सारे नेता जेलों में थे, आवाज फिर से गायब थी
सेंसरशिप लग गई थी, सरकार प्रेस तक की साहिब थी।
वक्त बीता तो इंदिरा को थोड़ी सद्बुद्धि आई
लोकतंत्र की हवा एक बार फिर देश में आई
चुनाव हुए, और इन्दिरा जमींदोज, अब जनता की बारी थी
जनता पार्टी की सरकार ये बताने को काफी थी।
प्रधानमंत्री का पद एक बार फिर मैंने ठुकराया था
अबकी बार मोरारजी को अपना ताज पहनाया था
पर मेरी उम्मीदें उनसे बाकी ही रह गई
मोरारजी, चरण सिंह संग जनता की सरकार गई।
उम्मीदें टूटी जनता की तो इंदिरा ही वापस आई
मेरे राजनीतिक निर्वासन का संदेश साथ में लाई
मैं अब फिर सक्रिय राजनीति से थोड़ा दूरी पर था
दिल में कुछ कसक बाकी थी, घुटता मजबूरी में था।
इसी तरह से मेरी इस कहानी का अंत हुआ
जनता अब तक कहती है एक जयप्रकाश सा संत हुआ
अब चाहता हूँ कोई फिर मेरी विरासत को बढाए
उठे, और सत्ता को जनता की आवाज सुनाए।
यक़ीनन एक दिन ये स्वप्न साकार होगा
और वही हिन्दुस्तान का वास्तविक आकार होगा।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
श्रीमान क्षितिज भट्ट |
हाँ ! मैं जयप्रकाश हूँ
सत्ता की आँधी के लिए मैं इंकलाब हूँ
मठाधीशों में मैं लोकनायक जयप्रकाश हूँ।
जब जब तूती बोली है शासन में फासीवाद की
जब जब उठी आवाज हिन्द में नक्सलवाद की
जब जब आई है आवाज परिवर्तन-हुंकार की
कभी भूदान, कभी सम्पूर्ण क्रांति के राग की
तब तब उठा सामने आया प्रकाश का मैं राग हूँ
गाँधी पर रखता विश्वास हूँ,
हाँ ! मैं जयप्रकाश हूँ।
जब दमक रहा था आभामंडल नेहरू के प्रकाश से
लोहिया दे रहे थे उन्हें चुनौती, लोकतंत्र के विश्वास से
मैं भटक रहा था कहीं दूर दस्युओं के आवासों में
लगा हुआ था आत्मसमर्पण करवाने में प्रयासों से।
वही दौर था, वही वक्त था, 'विनोदा' का प्रभाव भी था
भूदान से जुड़ना ही था, वो मेरा स्वभाव ही था
मैं निरंतर मदमस्त हो समाजवाद को बुन रहा था
सक्रिय राजनीति से थोड़ा दूरी पर ही चल रहा था।
तब भी थी लोगों की इच्छा, मैं नेहरू का उत्तराधिकार लूँ
चाचा जैसे ही गद्दी छोडें, मैं सिंहासन स्वीकार लूँ
पर मेरी आस्था गाँधी में अब भी उतनी ही बाकी थी
सिंहासन की धूमिल आभा, मेरे लिए नाकाफी थी।
मैं लगा रहा कार्यों में अपने पर नेताओं का दौर गया
नेहरू गए, शास्त्री गए, युद्धों का भी एक दौर गया
नेहरू की बिटिया अब हिन्दुस्तान की रानी थी
लोकतंत्र से उसकी ठन गई, कर रही मनमानी थी।
भ्रष्टाचार चरम पर था, व्यक्तिवाद प्रभावी था
इंदिरा-संजय का नाम ही बस लोकतंत्र का स्वामी था
चिमन भाई गुजरात में खुदको राजा ही समझते थे
जनता की उठती आवाजों का मतलब नहीं समझते थे।
लेकिन छात्र शक्ति, जन शक्ति बनकर सड़कों पर आने वाली थी
अबकी बार जनता फिर से सिंहासन हिलाने वाली थी
तो नेतृत्व का अभाव वक्त को अब बिल्कुल स्वीकार ना था
और देश में कहीं कोई दूसरा 'जयप्रकाश' ना था।
मैंने थामी बागडोर अब आंदोलन को बढ़ना था
सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल मुल्क में अब तो पक्का बजना था
चिमन भाई की गद्दी गई, गुजरात में आवाज उठी
पटना से बढ़ती हुई, अब दिल्ली तक आवाज उठी।
पूरा देश उठ रहा था, मन सबका आक्रोश में था
सत्ता का मातहत तक अब हमारे साथ में था
आवाजें बढ़ने में थी, कुर्सियाँ हिलने में थी
लोकतंत्र की ताकत मुल्क को, अब बस दिखने ही को थी।
लेकिन बदला वक्त तभी, जम्हूरियत शहीद हुई
भारत की संपूर्ण प्रतिष्ठा आपातकाल से ढेर हुई
उसूलों को फाँसी दे दी तानाशाही शासन ने
मुल्क की बिगड़ी तकदीर 'संजय' के प्रशासन में।
संविधान को मिली तिलांजलि, कानून का बंटाधार हुआ
जो भी माँ-बेटे ने चाहा, उस पर उनका अधिकार हुआ
सारे नेता जेलों में थे, आवाज फिर से गायब थी
सेंसरशिप लग गई थी, सरकार प्रेस तक की साहिब थी।
वक्त बीता तो इंदिरा को थोड़ी सद्बुद्धि आई
लोकतंत्र की हवा एक बार फिर देश में आई
चुनाव हुए, और इन्दिरा जमींदोज, अब जनता की बारी थी
जनता पार्टी की सरकार ये बताने को काफी थी।
प्रधानमंत्री का पद एक बार फिर मैंने ठुकराया था
अबकी बार मोरारजी को अपना ताज पहनाया था
पर मेरी उम्मीदें उनसे बाकी ही रह गई
मोरारजी, चरण सिंह संग जनता की सरकार गई।
उम्मीदें टूटी जनता की तो इंदिरा ही वापस आई
मेरे राजनीतिक निर्वासन का संदेश साथ में लाई
मैं अब फिर सक्रिय राजनीति से थोड़ा दूरी पर था
दिल में कुछ कसक बाकी थी, घुटता मजबूरी में था।
इसी तरह से मेरी इस कहानी का अंत हुआ
जनता अब तक कहती है एक जयप्रकाश सा संत हुआ
अब चाहता हूँ कोई फिर मेरी विरासत को बढाए
उठे, और सत्ता को जनता की आवाज सुनाए।
यक़ीनन एक दिन ये स्वप्न साकार होगा
और वही हिन्दुस्तान का वास्तविक आकार होगा।
नमस्कार दोस्तों !
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