यह कितना आश्चर्यजनक है कि 10 जनवरी को हम 1975 से 'विश्व हिंदी दिवस' मनाते आ रहे हैं, किन्तु भारत में जन्मनेवाली 'हिंदी' यहां की राष्ट्रभाषा तक नहीं है । हालांकि देश के अंदर हिंदी दिवस 14 सितंबर को मनाई जाती है, जो कि इसी तिथि को 1949 में इसे राजभाषा (Official Language) के तौर पर शामिल किया गया था । ध्यातव्य हो, हिंदी में भोजपुरी, मैथिली, मधेसी, बुन्देली, पूर्वांचली, नागपुरी, छत्तीसगढ़ी तथा अंगिका जैसी बड़ी भाषाएँ शामिल हैं । मॉरीशस, फ़िज़ी जैसे देशों में भोजपुरीमिश्रित हिंदी ही वहाँ की द्वितीय राजभाषा है । परंतु भारत में इनका स्थान अंग्रेजी के साथ राजभाषा की है । आज संसार में चीनी-मंदारिन भाषा से भी हिंदी आगे निकल गयी है । विगत वर्ष इंडिया टुडे में दिए विश्लेषण इस भाषा के मानक को निर्धारित कर रहे हैं । इसके बावजूद हिंदी अपने घर में ही 'बेवफा सनम' हैं । हम तमिल, तेलुगु, मलयालम, उर्दू अथवा बांग्ला का कहाँ विरोध करते हैं, क्योंकि कोई भी भाषा संस्कृति के रक्षक होते हैं, इसलिए त्रिभाषा-फ़ॉर्मूला सहित इसे 'राष्ट्रभाषा' का दर्ज़ा देकर इनका 'अंतरराष्ट्रीयकरण' किया जाना चाहिए, क्योंकि अबुधाबी में भी अब हिंदी भाषा को पहचान मिल गयी है, फिर अपने देश में ही क्यों नहीं ? आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में आज पढ़ते हैं श्रीमान आमिर विद्यार्थी की शानदार, जानदार और मन को छूती अद्भुत आलेख...
आधुनिक कबीर की उपाधि से महिमामंडित प्रगतिवादी कवि बाबा नागार्जुन ने कभी कहा था– "जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊं/ जनकवि हूँ मैं/ साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊं।"
बाबा नागार्जुन द्वारा कही गई उपर्युक्त पंक्तियाँ एक ऐसे कवि, एक ऐसी निर्भीक-बेबाक शख्सियत पर पूर्णत: सटीक बैठती हैं, जो गुलाम भारत में जन्मा और आज़ाद भारत में मृत्यु को प्राप्त हुआ। जिसका कहना था कि --
"नहीं मुझे इस तरह डबडबाई आँखों से मत घूरो/ मैं तुम्हारें ही कुनबे का आदमी हूँ/ शरीफ हूँ/ सगा हूँ/ फिलहाल तुम्हें गलत जगह डालने का/ मेरा कोई इरादा नहीं है।"
इन पंक्तियों को पढ़-सुनकर मन में सहसा एक प्रश्न उठता है कि कौन था यह आदमी ? कहाँ से आया था ? जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा था जिसकी प्रत्येक बात -"दुनिया के व्याकरण के खिलाफ थी।"जो कहता था --
"जनमत की चढ़ी हुई नदी में/ एक सड़ा हुआ काठ है/ लन्दन और न्यूयार्क के घुंडीदार तसमों से डमरू की तरह बजता हुआ/ मेरा चरित्र अंग्रेजी का 8 है।"
जिसका मानना था --
"अपने बचाव के लिए खुद के खिलाफ हो जाने के सिवा दूसरा रास्ता क्या है।"
और जो कविता में जाने से पहले पूछता था -- "जब इससे न चोली बन सकती है न चोंगा/तब आप कहो इस ससुरी कविता को जंगल से जनता तक ढ़ोने से क्या होगा।"
वह कहता था- "कविता करना मंटो का मरना है।"
वह कहता था- "एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।"
और जो कहता था-"लगातार बारिश में भीगते हुए/ उसने जाना की हर लड़की/ तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है/ और कविता हर तीसरे पाठ के बाद।'
और जो कहता था- "वैसे यह सच है जब सड़कों में होता हूँ/ बहसों में होता हूँ/ रह-रह चहकता हूँ/ लेकिन हर बार घर वापस लौटकर/ कमरे के एकांत में जूतें से निकाले गए पाँव-सा महकता हूँ।"
और वह कहता था -"कितना भद्दा मज़ाक़ है/ कि हमारे चेहरों पर आँख के ठीक नीचे ही नाक है।"
कौन था वह जो कहता था- "सचमुच मज़बूरी है/ मगर जिंदा रहने के लिए / पालतू होना ज़रूरी है।"
कोई माने या न माने किन्तु वह कहता था एक बार नहीं बार-बार कहता था-
"हाँ-हाँ मैं कवि हूँ; कवि याने भाषा में भदेस हूँ; इस कदर कायर हूँ कि उत्तर-प्रदेश हूँ ।"
इन सभी सवालों के जवाब में कहा जा सकता है कि यह सब कहना था उस कवि का, जो भारत के एक विशाल राज्य उत्तर-प्रदेश के सनातन धर्म की राजधानी (अशोक वाजपेयी के अनुसार) कहे जाने वाले स्थान जिसे कोई बनारस के नाम से जानता है, कोई वाराणसी के नाम से तो कोई काशी के नाम से, के अंतर्गत आने वाले एक छोटे से गाँव खेवली से सम्बंध रखता था। इस कवि का मूल नाम वैसे तो सुदामा पांडेय था, किन्तु यह महान प्रतिभा जो मोहभंग और हताशा-निराशा के युग की उपज थी, को संसार के लोग सुदामा पांडेय के नाम से कम बल्कि धूमिल के नाम से ज्यादा जानते हैं। इनके पिता का नाम पं0 शिवनायक पांडेय और माता का नाम रजवंती देवी था। यदि इनकी शिक्षा के सम्बन्ध में कहूं तो मोटे तौर पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि धूमिल की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही निकटवर्ती एक स्कूल में संपन्न हुई। हाई स्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। आगे की पढ़ाई करने के लिए हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज वाराणसी पहुचें किन्तु पिता की असामयिक मृत्यु एवं धनाभाव के कारण पढाई का सिलसिला बीच में ही टूट गया। कुछ दिन इधर-उधर नौकरी की और कुछ पैसे जमा करके सन् 1957 ई० में वाराणसी के औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से प्रथम श्रेणी में विद्युत् डिप्लोमा करने के बाद वहीं सन् 1958 ई० में विद्युत् अनुदेशक बन गए। जीवन भर इसी पद पर कार्यरत रहे। किन्तु उच्च अधिकारियों से न बनने के कारण इनका बार बार तबादला होता रहा कभी बलिया तो कभी सीतापुर तो कभी सहारनपुर। ये तो हुआ धूमिल का संक्षिप्त-सा जीवन परिचय। अब यदि इनके कवि-कर्म की बात करें तो हम सभी जानते हैं कि सन् 1947 ई० में हम आज़ाद हो गए। आज़ाद भारत के प्रत्येक नागरिक की अपनी अलग-अलग आशाएं थी आकांक्षाएँ थी, लेकिन इन आशाओं-आकांक्षाओं को धूमिल होने में, मटियामेट होने में ज़्यादा समय न लगा। एक अन्य कवि दुष्यंत कुमार ने कहा भी था -- कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए/ कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
कारण साफ़ था आज़ाद होने से पहले हम गोरों के गुलाम थे और आज़ाद होने के बाद कालों के और इसकी भविष्यवाणी बहुत पहले ही मुंशी प्रेमचंद कर चुके थे। आज़ादी के बाद कुछ नहीं बदला, यदि बदला तो लोग बदले, समय बदला, एक देश दो अलग-अलग हिस्सों में बंट गया, तारों के इस ओर हिंदुस्तान और उस ओर पाकिस्तान।
धूमिल ने कहा था - "सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरतें हुए अपने आप से सवाल करता हूँ/ क्या आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहियाँ ढोता है/ या इसका कोई ख़ास मतलब होता है।"
सन् साठ के आस-पास हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक चिंगारी उठी और इस चिंगारी को आग में बदलने का कार्य किया धूमिल की कविताओं ने। धूमिल स्वातन्त्र्योत्तर आधुनिक हिंदी साहित्य के एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को कल्पना लोक से बाहर निकाला और उसका रिश्ता समसामयिक यथार्थ से जोड़ा अर्थात उसको आम आदमी से जोड़ा। यदि कहा जाए कि धूमिल की कविता आम आदमी की कविता है उसकी व्यथा, वेदना, दुःख और उसकी पीड़ा, उसके टूटते-बनते, उजड़ते-बसते सपनों की कविता है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। धूमिल कविता को आम आदमी तक पहुँचाना चाहता था- वह कहता था कि -- यदि कभी कहीं कुछ कर सकती/ तो कविता ही कर सकती है। धूमिल की कविताओं में आज़ाद भारत की वह तस्वीर उभर कर हमारे सामने आती है जिसमें बदहाली है, बेकारी है, भुखमरी है, असंतोष की भावना है और व्यवस्था के प्रति भारी आक्रोश है, समाज और व्यवस्था के प्रति मोहभंग है। कथाकार और धूमिल के यार काशीनाथ सिंह कहते हैं---धूमिल ने अपने समकालीन कवियों का ध्यान एक ठोस समस्या की ओर खींचा- जनतंत्र और व्यवस्था।
धूमिल ने कहा है- "न कोई प्रजा है/ न कोई तंत्र है/ यह आदमी के खिलाफ/ आदमी का खुला षड्यंत्र है।"
धूमिल अपनी लेखनी के माध्यम से भूख और गरीबी का एक पूरा का पूरा चित्र प्रस्तुत कर देते हैं उनकी एक ऐसी ही कविता है 'किस्सा जनतंत्र'-- "करछुल,बटलोही से बतियाती है और चिमटा तवे से मचलता है, चूल्हा कुछ नहीं बोलता, चुपचाप जलता है और जलता रहता है।"
वह कहतें हैं- "मानसून के बीच खड़ा मैं,आक्सीजन का कर्जदार हूँ, मैं अपनी व्यवस्थाओं में बीमार हूँ।"
जैसा की हम सब इस बात से भली-भाँति परिचित हैं की धूमिल के साहित्य के क्षेत्र में आने से पहले आलोचकों का ध्यान कहानियों-उपन्यासों की ओर था किन्तु धूमिल के आने के बाद आलोचकों का ध्यान कविता की ओर खिंचा, धूमिल की ओर खिंचा।
धूमिल की ये विशेषता है की वह जनता के सामने प्रश्न चिन्ह छोड़ जाते हैं उनकी एक ऐसी ही कविता है, जो अधिकाँश साथियों ने सुनी और पढ़ी होगी। रोटी और संसद जिसमें वह कहते हैं कि --
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है,न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ --
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है।
कविता के विषय में धूमिल का कहना था कि --
"कविता क्या है ? कोई पहनावा है ? कुर्ता-पाजामा है ? ना भाई ना, कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है। क्या यह व्यक्तित्व बनाने की-चरित्र चमकाने की खाने कमाने की चीज़ है ? ना भाई ना कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।"
और अब अंत में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि -- "मेरे पास अक्सर एक आदमी आता है/ और हर बार/ मेरी डायरी के अगले पन्ने पर बैठ जाता है।" उसका नाम है सुदामा पाण्डेय धूमिल । धूमिल ने हिंदी साहित्य जगत को एक से बढ़कर एक कविताएँ दी जिनमें- अकाल दर्शन, पठकथा, बसंत, एकांत कथा, सच्ची बात, संसद समीक्षा, मुनासिब कारवाई, कवि 1970 तथा मोचीराम जैसी कविताओं को रखा जा सकता है। मोचीराम से एक अंश- बाबूजी सच कहूं- मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है,मेरे लिए/ हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।
एक बात और धूमिल की कई कविताओं में मनुष्य के गुप्तांगो के नाम भी भरे पड़े हैं। जिनमें से एक में वह कहतें हैं कि -- यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी दाएं हाथ की नैतिकता से इस कदर मज़बूर होता है कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गांड सिर्फ बायाँ हाथ धोता है।'
धूमिल के तीन काव्य-संग्रह प्रकाश में आये सन् 1972 ई० में संसद से सड़क तक, सन् 1977 ई० में कल सुनना मुझे और तीसरा और अंतिम काव्य-संग्रह सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र सन् 1983 ई० में धूमिल के सुपुत्र रत्नशंकर के प्रयत्न से प्रकाशित हुआ।
10 फ़रवरी सन् 1975 ई० में ब्रेन ट्यूमर हो जाने के कारण मात्र 38 वर्ष की उम्र में यह कवि संसार से विदा हो गया। धूमिल को मरणोपरांत संसद से सड़क तक काव्य-संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।
यदि धूमिल को समझना है, उनके अंदर के कवि के मर्म को समझना है, उनकी कविताओं को समझना है, तो धूमिल को आत्मसात करना होगा इस छोटे से परिचय से कुछ नहीं होगा। इस छोटे से लेख या नोट्स में धूमिल: भाषा में भदेस का कवि को समझने का प्रयास भर है, कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं।
और अंत में धूमिल की अंतिम कविता की चार पंक्तियों से जो मुझे बहुत प्रिय हैं से अपनी बात का अंत करता हूँ --
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है ।
श्रीमान आमिर विद्यार्थी |
आधुनिक कबीर की उपाधि से महिमामंडित प्रगतिवादी कवि बाबा नागार्जुन ने कभी कहा था– "जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊं/ जनकवि हूँ मैं/ साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊं।"
बाबा नागार्जुन द्वारा कही गई उपर्युक्त पंक्तियाँ एक ऐसे कवि, एक ऐसी निर्भीक-बेबाक शख्सियत पर पूर्णत: सटीक बैठती हैं, जो गुलाम भारत में जन्मा और आज़ाद भारत में मृत्यु को प्राप्त हुआ। जिसका कहना था कि --
"नहीं मुझे इस तरह डबडबाई आँखों से मत घूरो/ मैं तुम्हारें ही कुनबे का आदमी हूँ/ शरीफ हूँ/ सगा हूँ/ फिलहाल तुम्हें गलत जगह डालने का/ मेरा कोई इरादा नहीं है।"
इन पंक्तियों को पढ़-सुनकर मन में सहसा एक प्रश्न उठता है कि कौन था यह आदमी ? कहाँ से आया था ? जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा था जिसकी प्रत्येक बात -"दुनिया के व्याकरण के खिलाफ थी।"जो कहता था --
"जनमत की चढ़ी हुई नदी में/ एक सड़ा हुआ काठ है/ लन्दन और न्यूयार्क के घुंडीदार तसमों से डमरू की तरह बजता हुआ/ मेरा चरित्र अंग्रेजी का 8 है।"
जिसका मानना था --
"अपने बचाव के लिए खुद के खिलाफ हो जाने के सिवा दूसरा रास्ता क्या है।"
और जो कविता में जाने से पहले पूछता था -- "जब इससे न चोली बन सकती है न चोंगा/तब आप कहो इस ससुरी कविता को जंगल से जनता तक ढ़ोने से क्या होगा।"
वह कहता था- "कविता करना मंटो का मरना है।"
वह कहता था- "एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।"
और जो कहता था-"लगातार बारिश में भीगते हुए/ उसने जाना की हर लड़की/ तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है/ और कविता हर तीसरे पाठ के बाद।'
और जो कहता था- "वैसे यह सच है जब सड़कों में होता हूँ/ बहसों में होता हूँ/ रह-रह चहकता हूँ/ लेकिन हर बार घर वापस लौटकर/ कमरे के एकांत में जूतें से निकाले गए पाँव-सा महकता हूँ।"
और वह कहता था -"कितना भद्दा मज़ाक़ है/ कि हमारे चेहरों पर आँख के ठीक नीचे ही नाक है।"
कौन था वह जो कहता था- "सचमुच मज़बूरी है/ मगर जिंदा रहने के लिए / पालतू होना ज़रूरी है।"
कोई माने या न माने किन्तु वह कहता था एक बार नहीं बार-बार कहता था-
"हाँ-हाँ मैं कवि हूँ; कवि याने भाषा में भदेस हूँ; इस कदर कायर हूँ कि उत्तर-प्रदेश हूँ ।"
इन सभी सवालों के जवाब में कहा जा सकता है कि यह सब कहना था उस कवि का, जो भारत के एक विशाल राज्य उत्तर-प्रदेश के सनातन धर्म की राजधानी (अशोक वाजपेयी के अनुसार) कहे जाने वाले स्थान जिसे कोई बनारस के नाम से जानता है, कोई वाराणसी के नाम से तो कोई काशी के नाम से, के अंतर्गत आने वाले एक छोटे से गाँव खेवली से सम्बंध रखता था। इस कवि का मूल नाम वैसे तो सुदामा पांडेय था, किन्तु यह महान प्रतिभा जो मोहभंग और हताशा-निराशा के युग की उपज थी, को संसार के लोग सुदामा पांडेय के नाम से कम बल्कि धूमिल के नाम से ज्यादा जानते हैं। इनके पिता का नाम पं0 शिवनायक पांडेय और माता का नाम रजवंती देवी था। यदि इनकी शिक्षा के सम्बन्ध में कहूं तो मोटे तौर पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि धूमिल की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही निकटवर्ती एक स्कूल में संपन्न हुई। हाई स्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। आगे की पढ़ाई करने के लिए हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज वाराणसी पहुचें किन्तु पिता की असामयिक मृत्यु एवं धनाभाव के कारण पढाई का सिलसिला बीच में ही टूट गया। कुछ दिन इधर-उधर नौकरी की और कुछ पैसे जमा करके सन् 1957 ई० में वाराणसी के औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से प्रथम श्रेणी में विद्युत् डिप्लोमा करने के बाद वहीं सन् 1958 ई० में विद्युत् अनुदेशक बन गए। जीवन भर इसी पद पर कार्यरत रहे। किन्तु उच्च अधिकारियों से न बनने के कारण इनका बार बार तबादला होता रहा कभी बलिया तो कभी सीतापुर तो कभी सहारनपुर। ये तो हुआ धूमिल का संक्षिप्त-सा जीवन परिचय। अब यदि इनके कवि-कर्म की बात करें तो हम सभी जानते हैं कि सन् 1947 ई० में हम आज़ाद हो गए। आज़ाद भारत के प्रत्येक नागरिक की अपनी अलग-अलग आशाएं थी आकांक्षाएँ थी, लेकिन इन आशाओं-आकांक्षाओं को धूमिल होने में, मटियामेट होने में ज़्यादा समय न लगा। एक अन्य कवि दुष्यंत कुमार ने कहा भी था -- कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए/ कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
कारण साफ़ था आज़ाद होने से पहले हम गोरों के गुलाम थे और आज़ाद होने के बाद कालों के और इसकी भविष्यवाणी बहुत पहले ही मुंशी प्रेमचंद कर चुके थे। आज़ादी के बाद कुछ नहीं बदला, यदि बदला तो लोग बदले, समय बदला, एक देश दो अलग-अलग हिस्सों में बंट गया, तारों के इस ओर हिंदुस्तान और उस ओर पाकिस्तान।
धूमिल ने कहा था - "सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरतें हुए अपने आप से सवाल करता हूँ/ क्या आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहियाँ ढोता है/ या इसका कोई ख़ास मतलब होता है।"
सन् साठ के आस-पास हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक चिंगारी उठी और इस चिंगारी को आग में बदलने का कार्य किया धूमिल की कविताओं ने। धूमिल स्वातन्त्र्योत्तर आधुनिक हिंदी साहित्य के एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को कल्पना लोक से बाहर निकाला और उसका रिश्ता समसामयिक यथार्थ से जोड़ा अर्थात उसको आम आदमी से जोड़ा। यदि कहा जाए कि धूमिल की कविता आम आदमी की कविता है उसकी व्यथा, वेदना, दुःख और उसकी पीड़ा, उसके टूटते-बनते, उजड़ते-बसते सपनों की कविता है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। धूमिल कविता को आम आदमी तक पहुँचाना चाहता था- वह कहता था कि -- यदि कभी कहीं कुछ कर सकती/ तो कविता ही कर सकती है। धूमिल की कविताओं में आज़ाद भारत की वह तस्वीर उभर कर हमारे सामने आती है जिसमें बदहाली है, बेकारी है, भुखमरी है, असंतोष की भावना है और व्यवस्था के प्रति भारी आक्रोश है, समाज और व्यवस्था के प्रति मोहभंग है। कथाकार और धूमिल के यार काशीनाथ सिंह कहते हैं---धूमिल ने अपने समकालीन कवियों का ध्यान एक ठोस समस्या की ओर खींचा- जनतंत्र और व्यवस्था।
धूमिल ने कहा है- "न कोई प्रजा है/ न कोई तंत्र है/ यह आदमी के खिलाफ/ आदमी का खुला षड्यंत्र है।"
धूमिल अपनी लेखनी के माध्यम से भूख और गरीबी का एक पूरा का पूरा चित्र प्रस्तुत कर देते हैं उनकी एक ऐसी ही कविता है 'किस्सा जनतंत्र'-- "करछुल,बटलोही से बतियाती है और चिमटा तवे से मचलता है, चूल्हा कुछ नहीं बोलता, चुपचाप जलता है और जलता रहता है।"
वह कहतें हैं- "मानसून के बीच खड़ा मैं,आक्सीजन का कर्जदार हूँ, मैं अपनी व्यवस्थाओं में बीमार हूँ।"
जैसा की हम सब इस बात से भली-भाँति परिचित हैं की धूमिल के साहित्य के क्षेत्र में आने से पहले आलोचकों का ध्यान कहानियों-उपन्यासों की ओर था किन्तु धूमिल के आने के बाद आलोचकों का ध्यान कविता की ओर खिंचा, धूमिल की ओर खिंचा।
धूमिल की ये विशेषता है की वह जनता के सामने प्रश्न चिन्ह छोड़ जाते हैं उनकी एक ऐसी ही कविता है, जो अधिकाँश साथियों ने सुनी और पढ़ी होगी। रोटी और संसद जिसमें वह कहते हैं कि --
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है,न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ --
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है।
कविता के विषय में धूमिल का कहना था कि --
"कविता क्या है ? कोई पहनावा है ? कुर्ता-पाजामा है ? ना भाई ना, कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है। क्या यह व्यक्तित्व बनाने की-चरित्र चमकाने की खाने कमाने की चीज़ है ? ना भाई ना कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।"
और अब अंत में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि -- "मेरे पास अक्सर एक आदमी आता है/ और हर बार/ मेरी डायरी के अगले पन्ने पर बैठ जाता है।" उसका नाम है सुदामा पाण्डेय धूमिल । धूमिल ने हिंदी साहित्य जगत को एक से बढ़कर एक कविताएँ दी जिनमें- अकाल दर्शन, पठकथा, बसंत, एकांत कथा, सच्ची बात, संसद समीक्षा, मुनासिब कारवाई, कवि 1970 तथा मोचीराम जैसी कविताओं को रखा जा सकता है। मोचीराम से एक अंश- बाबूजी सच कहूं- मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है,मेरे लिए/ हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।
एक बात और धूमिल की कई कविताओं में मनुष्य के गुप्तांगो के नाम भी भरे पड़े हैं। जिनमें से एक में वह कहतें हैं कि -- यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी दाएं हाथ की नैतिकता से इस कदर मज़बूर होता है कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गांड सिर्फ बायाँ हाथ धोता है।'
धूमिल के तीन काव्य-संग्रह प्रकाश में आये सन् 1972 ई० में संसद से सड़क तक, सन् 1977 ई० में कल सुनना मुझे और तीसरा और अंतिम काव्य-संग्रह सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र सन् 1983 ई० में धूमिल के सुपुत्र रत्नशंकर के प्रयत्न से प्रकाशित हुआ।
10 फ़रवरी सन् 1975 ई० में ब्रेन ट्यूमर हो जाने के कारण मात्र 38 वर्ष की उम्र में यह कवि संसार से विदा हो गया। धूमिल को मरणोपरांत संसद से सड़क तक काव्य-संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।
यदि धूमिल को समझना है, उनके अंदर के कवि के मर्म को समझना है, उनकी कविताओं को समझना है, तो धूमिल को आत्मसात करना होगा इस छोटे से परिचय से कुछ नहीं होगा। इस छोटे से लेख या नोट्स में धूमिल: भाषा में भदेस का कवि को समझने का प्रयास भर है, कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं।
और अंत में धूमिल की अंतिम कविता की चार पंक्तियों से जो मुझे बहुत प्रिय हैं से अपनी बात का अंत करता हूँ --
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है ।
नमस्कार दोस्तों !
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