श्रीमान अंकित एस. कुमार |
दहेेेज
एक जमाना है बीत गया, खून पसीना कर-कर के,
थोड़ा सा कमाया, उसमें भी बचाया मर-मर के
एक कि जगह आधी खाई, पूरी पूंजी रखी सहेज,
लिया उधार, गिरवी रखा मकान,
फिर भी न पूरा पड़ा दहेज...
बेटी को खुश रखूं, सोच उसके लिये राजकुमार सा लड़का देखा,
उसकी शादी में पानी की तरह पैसा फेंका..
लड़के वालों ने मांग रखी,
गाड़ी चाहिए महंगी वाली,
ख़ुशी की खातिर बेटी की,
हर मांग सर आंखो पे रखी...
जो बन पड़ा,वो सब किया
कर्ज के बोझ तले दब मर-मर कर जिया,
फिर भी कुछ पसन्द न उनको आया,
सुसराल के तानो ने बेटी का दिल रह-रह कर दुखाया,
बेटी की परेशानी को मैं भी समझ न पाया,
उसके पलकों के पीछे का दर्द मुझे न दिख पाया...
पीठ के नीले पड़े निशानों ने,
बेटी को दहेज का मतलब समझाया,
रोज-रोज के दर्द ने उसको इक दिन इतना तोड़ दिया,
फांसी के फंदे पर लटकी, उसने हम सब को छोड़ दिया,
इस कलमुहे दहेज की बेमानी मांगो ने,
मेरी खुशी का रुख मोड़ दिया...
कितनी बेटियाँ, रोंदी जाती है दहेज के लिये,
उन इंसानी राक्षसों को क्यों खुला छोड़ दिये,
बन्द करो ये दहेज के नाटक,
बहुत हो गया है अब आंतक,
समाज को नई दिशा दी जाए,
दहेज-सी कुरीति को मिटा दी जाए,
प्रण करो सब मिलकर,
किसी और की बेटी,फांसी पे न झूल जाए,
किसी और की बेटी, अब फांसी पर न झूल जाए...
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
जय हो
ReplyDeleteबहुत ही शानदार
ReplyDeleteVery nyc line bro kash yeh smaj jldi se jldi yeh baat smj jaye
ReplyDelete