आज शहीद दिवस है यानी महान शहीद-त्रय का बलिदान दिवस !
आइये, पढ़ते हैं, सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की पुण्य स्मरण में मैसेंजर ऑफ आर्ट -- डॉ. संगम वर्मा के आलेख ! खासकर शहीदेआजम भगत सिंह के बारे में, जिनके कारण भी हम आजाद हवा में सांस ले पा रहे हैं.....
21वीं सदी के इस दौर में जब हम आज़ाद ख्यालों में साँसे ले रहे हैं, इनके लिए ऐसे महान शख्सियतों के अवदान भी शामिल हैं, जिसने कम उम्र में ही गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई भारत माँ की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिए और जिनके नाम इतिहास के पृष्ठों में न सिर्फ दर्ज हुई, अपितु स्वर्णाक्षरों में अंकित भी हो गई । वे थे शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव, शहीद राजगुरु । वे आज भी हमारे लिये उतने ही युवा प्रेरक हैं, जितने कि स्वतन्त्रता संग्राम में थे।
शहीदेआजम भगत सिंह का नाम आज के नवयुवकों में भी उतने ही श्रद्धनीय है, जितने कि कल थे....
भगत सिंह के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए ‘जगमोहन’ और ‘चमनलाल’ ने कहा, ‘‘शहीद भगतसिंह न सिर्फ वीरता, साहस, देशभक्ति, दृढ़ता और आत्म-बलिदान के गुणों के सर्वोत्तम उदाहरण हैं, जैसा कि आज तक इस देश के लोगों को बताया गया है, वरन् वे अपने लक्ष्य के प्रति स्पष्टता, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की क्षमता वाले अद्भुत बौद्धिक क्रान्तिकारी व्यक्तित्त्व के प्रतिरूप भी थे।’’ उनके जीवन का वास्तविक और ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में है कि वह भारत की सशस्त्रक्रान्ति के दार्शनिक थे। भगत सिंह द्वारा की गई क्रान्ति, जितनी शस्त्रों के संघर्ष थी, उससे कहीं अधिक विचारों के संघर्ष थी। इस संबंध में स्वयं भगत सिंह का कथन था, ‘‘पिस्तौल और बम कभी इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’’
क्रान्तिकारी विचारों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय भगतसिंह को ही दिया जाता है।
तभी तो शहीद भगत सिंह हमारे नवयुवकों के लिए आदर्शमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। उनका यह आदर्श रूप उनके चिंतन, मनन और दार्शनिक विचारों में स्पष्टतः दिखाई पड़ते हैं । उन्हें भारतीय क्रान्तिकारी का प्रतीक माना जाता है। इस संबंध में ‘चमनलाल’ ने अपनी पुस्तक ‘भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़’ की भूमिका में लिखा, ‘‘एक युवक को साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में देश की स्वाधीनता के लिए क्रान्तिकारी कार्यवाहियों के अपराध में फाॅंसी चढ़ गया हो, वह युवक फाॅंसी चढ़ने वाले सैंकड़ों अन्य युवकों से अलग या सम्मिलित रूपसे उन सबका प्रतीक कैसे बन सकता है ?...लेकिन यदि वह युवक बारह वर्ष की उम्र में जलियाॅंवाला बाग की मिट्टी लेने पहुँच जाए, तो वह युवक 1923 में सोलह वर्ष की उम्र में ही घर छोड़ जाता है तथा सत्रह वर्ष की उम्र में ‘पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या’ पर एक प्रौढ़ चिंतक की तरह लेख लिखने लगता है और क्रान्तिकारी गतिविधियों के साथ-साथ निरंतर अध्ययन, चिंतन और लेखन में भी लगा रहता है तो ऐसे युवक के क्रान्तिकारी चिंतक का प्रतीक बनने की स्थितियाॅं अपने आप बन ही जाती हैं वैसे तो यह युवक कोई और भी होसकता था, परन्तु उस समय देश की विपरीत स्थितियों में, किस्मत के खेल से यह संयोग भगत सिंह को प्राप्त हुआ और अपने सात वर्ष केअल्पकालिक तूफानी बाज़ जैसे क्रान्तिकारी कार्यकर्ता, संगठनकर्ता, चिंतक और लेखक के रूप में भगत सिंह ने जो भूमिका निभाई और जिस शान व आन के साथ उसने 23 मार्च, 1931 को शहादत के लिए फाँसी का रस्सा गले में पहना, इनकी मिसाल भारत में ही नहीं, दुनिया में भी बहुत कम मिलती है और इसलिए भगत सिंह न केवल भारतीय क्रांतिकारी चिंतन के प्रतीक बने हैं आने वाले समय में वे विश्व की क्रांतिकारी परम्परा के महत्त्वपूर्ण नायक के रूप में भी अपना उचित स्थान प्राप्त करेंगे।’’ ये शब्द एक नवयवुक के प्रश्न को भी संतुष्ट करता है जो पूछता है-- ‘‘मैं अपने देश के लिए बलिदान क्यों दूँ ? मैं अपने लिए क्यों न सोचूं ?’’ इस प्रकार भगत सिंह नवयुवकों कोस्वार्थपरकता की सोच को त्याग कर देष सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
भगत सिंह नवयुवकों को अध्ययनशील होने के लिए कहते हैं। उन्होंने अपने विचारों को महत्व देते हुए लाहौर हाई-कोर्ट’ में कहा था-- ‘‘इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर ही तेज की जाती है।’’ इस आधार पर उन्होंने यह सूत्र प्रस्तुत किया कि, ‘‘आलोचना वस्वतन्त्र विचार किसी क्रान्तिकारी के अपरिहार्य गुण हैं।’’ भगत सिंह ने युवकों को विद्या के अध्ययन के साथ-साथ राजनीति का सही ज्ञानहासिल करने को कहा और लिखा-- ‘‘जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़े, अपना जीवन इसी काम में लगा दें।’’ भगतसिंह के विचारों में मार्क्सवाद तथा लेनिन का प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है तथा नौज़वानों को भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण को अपनाने के लिए कहते हैं। उनके अनुसार विचारगत होकर ही हम जड़ परम्पराओं को तोड़ सकते हैं। भगत सिंह की अध्ययनशीलता के बारे में ‘अलोक रंजन’ लिखते हैं-- ‘‘भगत सिंह ने जेल में रहकर मुश्क़िल से क्रांतिकारी और मार्क्सवादी साहित्य जुटाकर उसका गंभीर अध्ययन किया और उसका विश्लेषण भी किया।’’ इस प्रकार भगत सिंह ने जेल में रहकर जो भगीरथ अध्ययन किया, उन्होंने उन्हें सिर्फ अपने तक ही सीमित नहीं रखा वरन् अपने साथियों तक भी पहुॅंचाया। अस्तु, अगर भगत सिंह जेल में रहकर इतना अध्ययन कर सकते हैं तो हम मुक्त व स्वच्छंद रहकर क्यों नहीं ?
आइये, पढ़ते हैं, सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की पुण्य स्मरण में मैसेंजर ऑफ आर्ट -- डॉ. संगम वर्मा के आलेख ! खासकर शहीदेआजम भगत सिंह के बारे में, जिनके कारण भी हम आजाद हवा में सांस ले पा रहे हैं.....
डॉ. संगम वर्मा |
21वीं सदी के इस दौर में जब हम आज़ाद ख्यालों में साँसे ले रहे हैं, इनके लिए ऐसे महान शख्सियतों के अवदान भी शामिल हैं, जिसने कम उम्र में ही गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई भारत माँ की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिए और जिनके नाम इतिहास के पृष्ठों में न सिर्फ दर्ज हुई, अपितु स्वर्णाक्षरों में अंकित भी हो गई । वे थे शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव, शहीद राजगुरु । वे आज भी हमारे लिये उतने ही युवा प्रेरक हैं, जितने कि स्वतन्त्रता संग्राम में थे।
शहीदेआजम भगत सिंह का नाम आज के नवयुवकों में भी उतने ही श्रद्धनीय है, जितने कि कल थे....
भगत सिंह के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए ‘जगमोहन’ और ‘चमनलाल’ ने कहा, ‘‘शहीद भगतसिंह न सिर्फ वीरता, साहस, देशभक्ति, दृढ़ता और आत्म-बलिदान के गुणों के सर्वोत्तम उदाहरण हैं, जैसा कि आज तक इस देश के लोगों को बताया गया है, वरन् वे अपने लक्ष्य के प्रति स्पष्टता, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की क्षमता वाले अद्भुत बौद्धिक क्रान्तिकारी व्यक्तित्त्व के प्रतिरूप भी थे।’’ उनके जीवन का वास्तविक और ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में है कि वह भारत की सशस्त्रक्रान्ति के दार्शनिक थे। भगत सिंह द्वारा की गई क्रान्ति, जितनी शस्त्रों के संघर्ष थी, उससे कहीं अधिक विचारों के संघर्ष थी। इस संबंध में स्वयं भगत सिंह का कथन था, ‘‘पिस्तौल और बम कभी इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’’
क्रान्तिकारी विचारों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय भगतसिंह को ही दिया जाता है।
तभी तो शहीद भगत सिंह हमारे नवयुवकों के लिए आदर्शमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। उनका यह आदर्श रूप उनके चिंतन, मनन और दार्शनिक विचारों में स्पष्टतः दिखाई पड़ते हैं । उन्हें भारतीय क्रान्तिकारी का प्रतीक माना जाता है। इस संबंध में ‘चमनलाल’ ने अपनी पुस्तक ‘भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़’ की भूमिका में लिखा, ‘‘एक युवक को साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में देश की स्वाधीनता के लिए क्रान्तिकारी कार्यवाहियों के अपराध में फाॅंसी चढ़ गया हो, वह युवक फाॅंसी चढ़ने वाले सैंकड़ों अन्य युवकों से अलग या सम्मिलित रूपसे उन सबका प्रतीक कैसे बन सकता है ?...लेकिन यदि वह युवक बारह वर्ष की उम्र में जलियाॅंवाला बाग की मिट्टी लेने पहुँच जाए, तो वह युवक 1923 में सोलह वर्ष की उम्र में ही घर छोड़ जाता है तथा सत्रह वर्ष की उम्र में ‘पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या’ पर एक प्रौढ़ चिंतक की तरह लेख लिखने लगता है और क्रान्तिकारी गतिविधियों के साथ-साथ निरंतर अध्ययन, चिंतन और लेखन में भी लगा रहता है तो ऐसे युवक के क्रान्तिकारी चिंतक का प्रतीक बनने की स्थितियाॅं अपने आप बन ही जाती हैं वैसे तो यह युवक कोई और भी होसकता था, परन्तु उस समय देश की विपरीत स्थितियों में, किस्मत के खेल से यह संयोग भगत सिंह को प्राप्त हुआ और अपने सात वर्ष केअल्पकालिक तूफानी बाज़ जैसे क्रान्तिकारी कार्यकर्ता, संगठनकर्ता, चिंतक और लेखक के रूप में भगत सिंह ने जो भूमिका निभाई और जिस शान व आन के साथ उसने 23 मार्च, 1931 को शहादत के लिए फाँसी का रस्सा गले में पहना, इनकी मिसाल भारत में ही नहीं, दुनिया में भी बहुत कम मिलती है और इसलिए भगत सिंह न केवल भारतीय क्रांतिकारी चिंतन के प्रतीक बने हैं आने वाले समय में वे विश्व की क्रांतिकारी परम्परा के महत्त्वपूर्ण नायक के रूप में भी अपना उचित स्थान प्राप्त करेंगे।’’ ये शब्द एक नवयवुक के प्रश्न को भी संतुष्ट करता है जो पूछता है-- ‘‘मैं अपने देश के लिए बलिदान क्यों दूँ ? मैं अपने लिए क्यों न सोचूं ?’’ इस प्रकार भगत सिंह नवयुवकों कोस्वार्थपरकता की सोच को त्याग कर देष सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
भगत सिंह नवयुवकों को अध्ययनशील होने के लिए कहते हैं। उन्होंने अपने विचारों को महत्व देते हुए लाहौर हाई-कोर्ट’ में कहा था-- ‘‘इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर ही तेज की जाती है।’’ इस आधार पर उन्होंने यह सूत्र प्रस्तुत किया कि, ‘‘आलोचना वस्वतन्त्र विचार किसी क्रान्तिकारी के अपरिहार्य गुण हैं।’’ भगत सिंह ने युवकों को विद्या के अध्ययन के साथ-साथ राजनीति का सही ज्ञानहासिल करने को कहा और लिखा-- ‘‘जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़े, अपना जीवन इसी काम में लगा दें।’’ भगतसिंह के विचारों में मार्क्सवाद तथा लेनिन का प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है तथा नौज़वानों को भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण को अपनाने के लिए कहते हैं। उनके अनुसार विचारगत होकर ही हम जड़ परम्पराओं को तोड़ सकते हैं। भगत सिंह की अध्ययनशीलता के बारे में ‘अलोक रंजन’ लिखते हैं-- ‘‘भगत सिंह ने जेल में रहकर मुश्क़िल से क्रांतिकारी और मार्क्सवादी साहित्य जुटाकर उसका गंभीर अध्ययन किया और उसका विश्लेषण भी किया।’’ इस प्रकार भगत सिंह ने जेल में रहकर जो भगीरथ अध्ययन किया, उन्होंने उन्हें सिर्फ अपने तक ही सीमित नहीं रखा वरन् अपने साथियों तक भी पहुॅंचाया। अस्तु, अगर भगत सिंह जेल में रहकर इतना अध्ययन कर सकते हैं तो हम मुक्त व स्वच्छंद रहकर क्यों नहीं ?
नमस्कार दोस्तों !
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