आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं लेखक सुशांत सुप्रिय की अद्वितीय लघुकथा...
सब के लिए
बात इतनी पुरानी है कि वे शब्द, जो उसे बयान कर सकते , अब हर भाषा के शब्द-कोष से खो चुके हैं । बात इतनी नई है कि उसे बताने के लिए जो अभिव्यक्ति चाहिए वह अभी किसी भी भाषा में ईजाद ही नहीं हुई है । इसलिए मजबूरी में अब मुझे उपलब्ध शब्दों से ही काम चलाना पड़ रहा है ।
वह जैसे दूध के ऊपर जमी हुई मलाई थी । वह जैसे मुँह में घुल गई मिठास थी । वह जैसे सितारों को थामने वाली आकाश-गंगा थी । वह जैसे ख़ज़ाने से लदा एक समुद्री जहाज़ थी जिसकी चाहत में समुद्री डाकू पागल हो जाते थे । उसके होठ इतने सुंदर थे कि आवाज़ का मन नहीं करता कि वह उनके बीच से हो कर बाहर आए और इस प्रक्रिया में होठों को थोड़ा मलिन कर जाए । उसकी आँखें इतनी सुंदर थीं कि सभी दृश्य उन्हीं में बस जाना चाहते थे । उसका मन इतना सुंदर था कि वह अपने लिए नहीं औरों के लिए जीती थी । वह स्त्री थी ।
वह माँ थी तो मकान घर था । वह बहन थी तो भाइयों की कलाइयों पर राखी थी । वह बेटी थी तो घर में रौनक़ थी । वह पत्नी थी तो थाली में भोजन था, जीवन में प्रयोजन था ।
अकसर उसके मन के पके घाव उसकी आँखों में से बाहर झाँक रहे होते । उसके घुटनों पर दर्द का शिशु झूल रहा होता । उसके मन का आकाश जब भर आता तो वह उसी पर बरस पड़ता । चिड़िया की चोंच में भरा होता है जितना जल, बस उतनी ही ख़ुशी थी उसके जीवन में ।
एक दिन पुरुष घर आया पर उसे स्त्री कहीं नहीं दिखी । दरअसल स्त्री घर बन गई थी अपने पति और बच्चों के लिए । दरअसल स्त्री एक फलदार और छायादार वृक्ष बन गई थी पुरुष के लिए । दरअसल स्त्री रोटी बन गई थी, कपड़ा बन गई थी, बिस्तर बन गई थी, पालना बन गई थी, लेकिन पुरुष के पास वे आँखें ही नहीं थीं कि वह स्त्री को पहचान पाता ।
यह दुनिया के सारे पुरुषों की कथा है । यह दुनिया की सारी स्त्रियों की व्यथा है...
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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वह जैसे दूध के ऊपर जमी हुई मलाई थी । वह जैसे मुँह में घुल गई मिठास थी । वह जैसे सितारों को थामने वाली आकाश-गंगा थी । वह जैसे ख़ज़ाने से लदा एक समुद्री जहाज़ थी जिसकी चाहत में समुद्री डाकू पागल हो जाते थे । उसके होठ इतने सुंदर थे कि आवाज़ का मन नहीं करता कि वह उनके बीच से हो कर बाहर आए और इस प्रक्रिया में होठों को थोड़ा मलिन कर जाए । उसकी आँखें इतनी सुंदर थीं कि सभी दृश्य उन्हीं में बस जाना चाहते थे । उसका मन इतना सुंदर था कि वह अपने लिए नहीं औरों के लिए जीती थी । वह स्त्री थी ।
वह माँ थी तो मकान घर था । वह बहन थी तो भाइयों की कलाइयों पर राखी थी । वह बेटी थी तो घर में रौनक़ थी । वह पत्नी थी तो थाली में भोजन था, जीवन में प्रयोजन था ।
अकसर उसके मन के पके घाव उसकी आँखों में से बाहर झाँक रहे होते । उसके घुटनों पर दर्द का शिशु झूल रहा होता । उसके मन का आकाश जब भर आता तो वह उसी पर बरस पड़ता । चिड़िया की चोंच में भरा होता है जितना जल, बस उतनी ही ख़ुशी थी उसके जीवन में ।
एक दिन पुरुष घर आया पर उसे स्त्री कहीं नहीं दिखी । दरअसल स्त्री घर बन गई थी अपने पति और बच्चों के लिए । दरअसल स्त्री एक फलदार और छायादार वृक्ष बन गई थी पुरुष के लिए । दरअसल स्त्री रोटी बन गई थी, कपड़ा बन गई थी, बिस्तर बन गई थी, पालना बन गई थी, लेकिन पुरुष के पास वे आँखें ही नहीं थीं कि वह स्त्री को पहचान पाता ।
यह दुनिया के सारे पुरुषों की कथा है । यह दुनिया की सारी स्त्रियों की व्यथा है...
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