आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में आज पढ़ते हैं सुश्री संगसार सीमा जी की फ़ेसबुक वॉल से साभार ली गयी नूतन व अद्वितीय कविता....
सुश्री संगसार सीमा |
स्वप्न था कोई
उस अनिन्द्य सुन्दर
उपत्यका में बहती नदियों के
तीव्र प्रवाह में
साफ आईने सी दिखती
सफेद जलधारा के बीच
मेरा अक्स नजर आ रहा था
और मैं देख रही थी
अपने ही लोगों को
एक-एक कर मरते हुए
मृत देह उन्हीं नदियों में
प्रवाहित होती रही
मैं चुपचाप देख रही थी
उन्हें मरते और उन्हें मारते हुए
प्रवाहित होती रही
मैं चुपचाप देख रही थी
उन्हें मरते और उन्हें मारते हुए
मेरी खामोशी चीत्कार रही थी
फेनीली नदियों के प्रवाह में
दूध सी सफेद झागदार जलधाराएँ
जो अब रक्तिम हो चली थी
जिसके साथ ही मेरा चेहरा भी
लाल हो गया था
फेनीली नदियों के प्रवाह में
दूध सी सफेद झागदार जलधाराएँ
जो अब रक्तिम हो चली थी
जिसके साथ ही मेरा चेहरा भी
लाल हो गया था
मैं उन बंदूकधारियों से पूछना चाहती थी
कि क्या दोष था उनका
जो तुमने उन्हें मौत की नींद सुला दी
जब मेरे सारे लोग मार ही दिए गए
तो मैं क्यों बची रही इस नृशंसता की
मूक साक्षी बन कर
कि क्या दोष था उनका
जो तुमने उन्हें मौत की नींद सुला दी
जब मेरे सारे लोग मार ही दिए गए
तो मैं क्यों बची रही इस नृशंसता की
मूक साक्षी बन कर
ओ नकाबपोश
चेहरा तो तुमने ढका है
मैं तो अब भी खुली हूँ
निर्वाक , निर्वस्त्र
चेहरा तो तुमने ढका है
मैं तो अब भी खुली हूँ
निर्वाक , निर्वस्त्र
मार डालो मुझे भी
इन्हीं लोगों के साथ
जो बेमौत मारे गए हैं
अपनी एक खास पहचान के कारण
इन्हीं लोगों के साथ
जो बेमौत मारे गए हैं
अपनी एक खास पहचान के कारण
मुझे पहचानो
अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ
उपस्थित हूँ
तुम्हारे समक्ष
मार डालो मुझे
उन्हीं लोगों के साथ
जिन्होंने अपने होने की कीमत चुकाई है
अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ
उपस्थित हूँ
तुम्हारे समक्ष
मार डालो मुझे
उन्हीं लोगों के साथ
जिन्होंने अपने होने की कीमत चुकाई है
मेरी मृत्यु तो उसी दिन हो गई थी
जिस दिन तुमने मुझे जिन्दा छोङ़ दिया था
जिस दिन तुमने मुझे जिन्दा छोङ़ दिया था
अंधेरे में नींद खुली
पसीने से तर बतर चेहरा
जैसे सुलझती है कोई गुत्थी
आहिस्ते से
स्वप्न था कोई !
पसीने से तर बतर चेहरा
जैसे सुलझती है कोई गुत्थी
आहिस्ते से
स्वप्न था कोई !
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