सितंबर 2020 के अवसान। अंतिम सप्ताह में शहीदेआजम भगत सिंह, भारतरत्न व 91 वर्षीया सुरसाधिका लता मंगेशकर आदि विभूतियों के जन्मदिवस भी रहे। वहीं आगामी पहली अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस है, तो 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस। जैसा कि विदित है, विश्ववंद्य महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा के प्रतिमूर्त्ति थे । उनकी जन्म-जयंती (2 अक्टूबर) पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस की घोषणा कर रखे हैं। यह वर्ष उनकी 150वीं जन्म-जयंती का समापन वर्ष है । वैसे 2 अक्टूबर को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और 'जय जवान जय किसान' का नारा देनेवाले भारतरत्न व ताशकंद के शहीद लालबहादुर शास्त्री की जन्म-जयंती भी है। साहित्यकार श्रीमती रुपाली नागर 'संझा' जी से 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' द्वारा पूर्व में लिए गए 'इनबॉक्स इंटरव्यू' को इस ऐतिहासिक संधिबेला में प्रकाशित कर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ एक सार्थक प्रतिमान स्थापित किया है। वाकई में 'संझा' जी ने सभी गझिन सवालों का जिस बेबाकी और बिंदासपन से जवाब दी है, काबिलेगौर है यानी उन्हीं के शब्दों में- 'बाबूजी धीरे चलना, बड़े धोखे हैं इस राह में' ! .... तो आइये, हम इस इंटरव्यू से रूबरू होते हैं....
श्रीमती रुपाली नागर 'संझा' |
प्र.(1.)आपके कार्यों/अवदानों को सोशल/प्रिंट मीडिया से जाना। इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के बारे में बताइये ?
उ:-
आज अगर इस मुकाम पर हूँ कि सोशल/प्रिंट मीडिया में कोई मेरे बारे में थोड़ा सा भी जानते हैं या थोड़ा और ज़्यादा जानना चाहते हैं, तो वो वज़ह थोड़ी-बहुत लिख लेना ही है। इस थोड़े को ही सबकुछ मानिए ! बाक़ी मेरे मुख्य कार्य तो वो हैं, जो सोशल मीडिया से बाहर है। वो यहाँ कभी दिखाई नहीं देते हैं। ना ही कभी दिखाई देंगे,जैसा कि आप में से कई ने जाना ही है अब तक मेरी तीन किताबें प्रकाशित हुई हैं।
एक उपन्यास- "ऑन लाइन डेटिंग",
एक काव्य संग्रह- "इस पार मैं"
और एक देश (टर्की) का यात्रा वृत्तांत- "पंखों वाली लड़की की उड़ान"
बाक़ी कई पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र रचनाएँ छपती रही हैं। अपने ब्लॉग व पेज पर भी समसामयिक लेखन में हाथ आजमाते रहती हूँ।
प्र.(2.)आप किसप्रकार के पृष्ठभूमि से आए हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:-
मेरी पृष्ठभूमि का फलक बहुत व्यापक है। श्रद्धेय माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, पं रामनारायण उपाध्याय, किशोर कुमार, पं भगवंत राव मंडलोई जैसे हस्तियों की वज़ह से एक नामी शहर खंडवा (जहाँ मेरी पैदाइश और प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा हुई) से जीवन की शुरुआत हुई। इंदौर, धार, उज्जैन, रतलाम, भोपाल, झाबुआ जैसे मझोले शहरों में उच्च शिक्षा तक का सफ़र चला, तदुपरांत अध्यापन के सत्रह साल भी यहीं बीते।
शादी के बाद ज़िंदगी ने यू-टर्न लिया और हाथ पकड़कर महानगरों में खींच लाई। लखनऊ, दिल्ली, बंबई, कलकत्ता में रहते हुए विदेशों में निरंतर आवागमन लगे रहे !
इस तरह प्रारब्ध से एक वृहद भौगोलिक-सामाजिक-सांस्कृतिक कैनवास मुझे हासिल हुई। प्रत्येक स्थानों की विभिन्न लोक संस्कृति, आचार-विचार, परंपराओं के नानाविध रंगों के ट्यूब मेरे पास इकट्ठे होते गए । यही सुंदर रंग वो कारक बने, जो मुझे उकसाते रहे। जिनमें से समय-समय पर मनमाने रंग चुनकर अपनी मनचाही आकृतियों को मैं मन-मुताबिक आकार देने की कोशिश करती रही।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से प्रेरित अथवा लाभान्वित हो रहे हैं ?
उ:-
लेखन एक ऐसा क्षेत्र है, जिससे लोग अप्रत्यक्ष रुप से ही प्रभावित होते हैं। किताब पढ़कर कोई उसके चरित्रों या मूल्यों से इतना प्रभावित नहीं होता कि उन्हीं चरित्रों अथवा मूल्यों को यथावत आत्मसात कर पूर्णत: वैसे ही जीने लग जाए। वरना सबसे ज्यादा पठनीय रामायण-गीता बाँचकर लोग राम या कृष्ण की तरह नहीं जीने लग जाते ? या बापू की तरह ? हाँ, अपवाद अवश्य हैं,उन्हें इस गिनती में ना गिने !
आमतौर पर किसी लेखन को पढ़कर वे आनंदित होगें ! दुःख-संताप दूर कर हल्के होंगे ! चर्चा, विचार-विमर्श कर अपने दिमाग को धार देंगें। उनसे कुछ नयी बातें,नये तौर-तरीके सीखेंगें या फ़िर उसमें दर्शाये गये परिवेश, घटना मनोविज्ञान या परिस्थितियों के विश्लेषण से अपने में कुछ सुधार करेंगें या मन बहलाएगें। मेरे लेखन से भी शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा। ये होना कभी जान पायी, तो जानकर मुझे अच्छा ही लगेगा।
प्र.(4.)आपके कार्यों में जिन रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या आपके संगठन रूबरू हुए, उनमें से कुछ बताइये ?
उ:-
लिखना तो बेहद सहज रुप में होती रही। उसमें कोई बाधा-परेशानी नहीं रही, बल्कि घर-परिवार का बेहिसाब संबल और सहयोग रहा। उन्हीं की मंशाओं के चलते मैं छपकर आधिकारिक तौर पर लेखकों की सुदीर्घ पंक्ति में एक स्थान पा सकी।
परेशानी छपने के बाद ज़रूर लगी कि किताबें लोगों तक ज्यादा से ज्यादा पहुँचेगी कैसे ? प्रचार-प्रसार के जो तौर तरीके प्रचलित थे, उनमें मैं कहीं भी सामंजस्य नहीं बिठा पा रही थी। ना ही वैसा कुछ करने की मंशा ही थी। साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर अपना साम्राज्य विस्तार करने की कूवत मुझमें नहीं थी, तो किस नीति इससे पार पाऊँ या पीछे हट जाऊँ ? या सब समय और किस्मत के हाथों सौंप चुप बैठ जाऊँ इस अंर्तद्वंद से उबर पाना ही एकमात्र परेशानी है।
प्र.(5.)अपने कार्यक्षेत्र हेतु क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होने पड़े अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के शिकार तो न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाए ?
उ:-
जी नहीं ! ऐसे किसी फजीते से सामना नहीं करना पड़ा ! अलबत्ता दिग्भ्रमिता के चंगुल में ज़रूर फंसी ! नैया थोड़ी डोली डगमगाई, पर अंतत: पार हो ही गई।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट हैं या उनसबों को आपके कार्य से कोई लेना देना नहीं !
उ:-
क्योंकि लिखकर मैं अपने आपको,अपनी हर बात को दूसरे लोगों तक बेहतर सलीक़े से पहुँचा सकती हूँ, ऐसा मुझे लगता है। बस इसलिए ही।
जहाँ तक परिवार की बात है तो सबकुछ लेना-देना उन्हीं का है। लिखती तो मैं पहले भी थी, पर वो लिखा हुआ छपकर किताबों के रुप में सबके बीच में आये ! दूसरे भी मेरा नज़रिया जाने। उसकी ख़ूबसूरती को पहचाने। यह उन्हीं की चाहत पर मुमकिन हुआ है।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ?
उ:-
मेरे आस-पास के लोग और उनकी प्रवृत्तियाँ, मनोभाव, उनके सुख-दुःख, उनके तौर-तरीके। चारों ओर चल रही घटनाएँ और उनके पीछे के कारण, परिस्थितियां और उनके प्रभाव ये बड़े मददगार साबित होते हैं। इस मायने में कि इनसे तादात्म्य बिठाकर, इनका विश्लेषण करते रहने से मन में एक खलबली मचती है, उद्वेग उठते हैं, भावनाएँ ज्वार मारती हैं। इन्हीं से से लिखने का एक मजबूत आधार और प्रवाह बन जाता है।
अगरचे, भौतिक रुप में इस कार्य-फलक को सौ फीसद माने तो इसका पचास-पचास फीसदी हिस्सा मेरे पति और बेटे के बीच बराबरी से बँट जाता है। उनके बिना कुछ भी नहीं।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं ?
उ:-
मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपनी लेखनी से मैं भारतीय उद्दात संस्कृति के विभिन्न पहलू, उनके विस्तृत आयामों में सरलता से सामने ला सकूँ।हमारी संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। बेहद समृद्ध और वैविध्य पूर्ण है। इसकी निरंतरता, ग्राह्यता, सहिष्णुता और लचीलापन इसे विश्व में सर्वश्रेष्ठ दर्जा दिलाते हैं। मैं या मुझ जैसे किसी एक के दम पर ये नहीं टिकी है। ये हम सबके सम्मिलित प्रयासों से अक्षुण्ण बनी हुई हैं, बची हुई हैं । उन्हीं की बदौलत आने वाली कई सदियों तक ये अपना परचम फैलाती रहेगी। इस 'रिले रेस' में हमें सिर्फ 'बैटन' लेकर अपने-अपने हिस्से की दौड़ लगाते रहना है। उसे निर्धारित समय पर पूरा भी करना है। तत्पश्चात वो बैटन आगे वाले धावक के हाथ में थमा देना है। एकमात्र इस तरीके से हमारी संस्कृति अथक रुप से चलती रहेगी। अविजित रहेगी।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-
मेरा वश अपने आप पर है, किसी और पर मेरा कोई वश नहीं। इस लिहाज़ से भ्रष्टाचार के खिलाफ मैं अपने हिस्से की ईमानदारी, सब्र और अड़ की ढाल लेकर चल सकती हूँ। विषम परिस्थितियों में अपने संघर्ष, आक्रोश तथा उसी अड़ की तलवारें भी निकाल कर उससे दो-चार हाथ कर सकती हूँ, पर किसी और के हाथ में ये दोनों ही हथियार थमाना आसान नहीं है, क्योंकि इस मतलबी दुनिया में अक्सर अपना मतलब निकालने के लिए (जो कि अब जीवन का सार बन गया है) भ्रष्टाचार ही अस्त्र बनता है। हैरानी की बात तो ये कि ये सबसे सहज सुलभ हथियार है, जिससे सारे मामले सध जाते हैं। इसलिए अधिकतर लोगों ने उसे ही मजबूती से पकड़ा हुआ है। उसके आदी हो चुके लोगों को उसे परे रख कोई नये हथियार आजमाना हजम नहीं होगा। बहुतेरे मिशन, संस्थाएँ, कानून, नीतियाँ, रीतियाँ, भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए प्रयासरत हैं। पर आखिर में जाकर, ये पता चलता है कि इनमें से ही कुछेक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। क्या कीजिएगा ? इसको जड़ से उखाड़ने के ये प्रयास आज से थोड़े ही हो रहे हैं। जब से ये बीज रुप में था, तब से ही इसे बढ़ने से रोकने की भागीरथ कोशिशें की जा रही हैं। पर ये तो अमरबेल की तरह फैलते ही जा रहै हैं । समाधान है कि यह कपूर की भांति फुर्र से उड़ जाते हैं। आदर्श बघारने को मैं कह सकती हूँ कि एक दिन तो ऐसा आएगा कि मैं या कोई और इसे जड़ से उखाड़ फेंकेंगें, पर हमारे देश के लोगों की मानसिकता और तौर-तरीकों को देखकर ऐसा सोचना भी हकीकत में हवाई किले बनाने जैसा है। फ़िर भी साँस है, तो आस है-- की तर्ज पर हम नक्कारखाने में तूती की आवाज़ तो निकालते ही रहेंगे !
प्र.(10.)इस कार्यक्षेत्र के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे या कोई सहयोग प्राप्त हुए या नहीं ? अगर मिले, तो क्या ?
उ:-
जी नहीं, जनाब ! ऐसे किसी सुख पाने के लिए ख़ुद को ख़ूब दुखी बनाना होता है और मैं दुखों की धूल में धूसरित नहीं होती रहती। उसे बराबर झाड़ती रहती हूँ, तो शफ्फ़ाफ़ ख़ुशी के मारे हमेशा चकाचक ही नज़र आती हूँ। ऐसे सुखियारों को कौन पूछता है भला ? सुखी होना ही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। कोई नहीं आएगा यहाँ।
प्र.(11.)आपके कार्यक्षेत्र में कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे का सामना करना पड़ा हो !
उ:-
वर्तमान समय में कुछ विसंगतियाँ तो हैं ही ! किताब लिख लेना आसान है। उसे छपवाना, अच्छे प्रकाशक से छपवाना, अपने पक्ष में लाभ और शर्ते रखकर छपवाना-- ये सब अभी दूर की कौड़ियाँ हैं। नाम-दाम के ओढ़ने-बिछौने पास हों, तो बात और है। किसी का वरदहस्त होना सोने पे सुहागा। राजनीति और गुटबाज़ी किताबों की सेहत के लिए लाइलाज़ मर्ज़ की तरह बन गये हैं। ये कई लेखकों और उनके लेखन को घुट-घुट कर दम तोड़ने की कगार पर ले जाते हैं।
दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि किताब को ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचाने की है। अधिकतर लेखक को ख़ुद ही किताब की मार्केटिंग भी करनी पड़ती है। जगह-जगह दुकान सजाओ, तो अच्छे दुकानदार बनकर उपभोक्ताओं को रिझाओ। इस काम में जो जितना ज़्यादा हुनरमंद होंगे, वो उतनी ही ज़्यादा कमाई कर लेंगे (किताबों की बिक्री के मद्देनज़र) ! इसे यूँ बेहतर ढंग से कह सकते कि-
"सामान (किताब) की बिक्री दो जगहों से धड़ाधड़ होती है-
एक फुटपथिया हॉकर्स के मार्फत जो बड़े लच्छेदार जुमले उछाल, हाँकें मार-मार कर ग्राहकों को हलकान कर दें खरीदने के लिए। दूसरे लकदक शोरुम के मालिकों की बदौलत जो नियान बत्तियों में अपने असबाब के चमचमाते होल्डर्स, मीडिया के थ्रू पब्लिक में थ्रो कर खरीददारों को लुभाते हुए अपनी गिरफ्त में ले लें। बाकी सब पंसारी ! मार्केट अनंत, मार्केटिंग कथा अनंता ! रब ख़ैर करे। केस मुकदमे जैसी नौबत नहीं आयी, पर इतना तो अवश्य कहूँगी कि 'बाबूजी धीरे चलना, बड़े धोखे हैं इस राह में'!
प्र.(12.)कोई पुस्तक, संकलन या ड्राफ्ट्स जो इस संबंध में प्रकाशित हो तो बताएँगे ?
उ:-
एक उपन्यास- 'ऑनलाइन डेटिंग अप्रॉक्स 25:35'
एक काव्य संग्रह- 'इस पार मैं'
एक यात्रा वृत्तांत- 'पंखों वाली लड़की की उड़ान'
ये मेरी तीन प्रकाशित किताबें हैं।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:-
अभी तक ऐसा कोई सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ कि पुरस्कारों और सम्मानों को मुझसे हाथ मिलाने का। पाठक, किताबें या मेरी लिखी कुछ भी पढ़कर अपनी तरफ़ से जो दो बातें प्यार से उन पर कह देते हैं वो ही मेरा सबसे बड़ा इनाम है। ये मुझे भर-भर के मिले, उनसे मेरी ख़ुशियों में और इजाफा ही हुई !
प्र.(14.)कार्यक्षेत्र के इतर आप आजीविका हेतु क्या करते हैं तथा समाज और राष्ट्र को अपने कार्यक्षेत्र के प्रसंगश: क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:-
ऐसा कोई ख़ास जतन आजीविका हेतु नहीं करनी पड़ी । सालों सरकारी नौकरी कर ली है, वो काफ़ी है। अब पतिदेव मुस्तैदी से जुटे हुए हैं, हमारी हर चाहत पूरी करने के लिए। मेरा ध्यान अब उनका ख़याल रखने और अपनी कला एवं सृजनात्मकता को नये आयाम देने पर टिका हुआ है।
हाल फिलवक्त हर इंसान अपने आप में मुकम्मल है। उसे किसी और के सलाह-मशवरों, संदेशों की कोई दरकार नहीं है। ऐसा करने की जुर्रत भी करना, उसके अभिमान पर ठेस लगाने का जबर गुनाह करना है और मैं बनते कोशिश गुनाह करने से बचती हूँ। हाँ, वर्तमान कठिन दौर के मद्देनज़र जाते-जाते इतना कहना चाहूँगीं कि-
"दुःख और उदासी धूल की तरह ही रखिये जिंदगी में,
हल्का सा झाड़ते ही साफ...
ना कि कबाड़ के ढेर की तरह जमा करते रहिये,
साल में एक बार उठा फेंकने के लिये…!"
यही जीने की राह है, यही ख़ुशियों का मुकाम।
अपना ख़ूब ख़याल रखें। प्यार लुटाते रहें। आपस में मिलते-जुलते रहें।
मेरा हाथ पकड़ आख़िर तक चलकर आने के लिए आपका बहुत शुक्रिया।
आप यूं ही हँसती रहें, मुस्कराती रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !
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