आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, कवयित्री सुरभि सिंघल की अद्वितीय दर्दभरी सामाजिक कविता...
कवयित्री सुरभि सिंघल |
चलती है अग्नि मशाल उठाकर
वो आज की नारी भर है
जिसे कुचलकर कोई कायर
दब रहा उसका अहम भर है
घर की किसी खट-पट में
दम तोड़ता उसका हर हुनर है
उसकी क्षमताएं हांफती सी
घर की ऊंची सी ड्योढ़ी पर
उस पर पुरूष का बंधन है
उसपर मर्यादा का आँचल है
अपने सम्मान को जूझती
वो स्त्री नहीं पराक्रम है
जिसपर किसी अथाह दम्भी का
और अधिक बढ़ता फन है
वो लायक है हर सीढ़ी के
फिर भी पिसती किसी रिश्ते में
वो जा सकती आकाशों में
फिर भी दबती किसी रसोई में
वो फंसती अपने फंदे में
घुटता रहता उसका दम है
उसके हुनर से न्याय करने का
अब कहाँ रहा साहस है
वो स्त्री नहीं, पूरक है खुद की
कहाँ किसी दब्बू कंधे पर
उसका सर सज पायेगा
जब चीख उठेगा उसका मन
सब अहम धरा रह जाएगा !
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