उ:-
लगभग दो साल पहले 'तीखर' नाम की एक संस्था का गठन किया था। तीखर साहित्य को बड़े ही आकर्षक तरीके से सजा सँवार कर, नये कलेवर के साथ आप सब के सामने प्रस्तुत करता है। तीखर का मानना है कि आज के दौर में विषयवस्तु का उत्तम होना ही सम्पूर्ण नहीं होता, अपितु उसका प्रस्तुतिकरण भी बेमिसाल होना चाहिए। विश्व की दूसरी (!) सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा 'हिंदी' को एलीट क्लास तक, घरों-दफ्तरों में, कॉर्पोरेट्स में कैसे ले जाया जाए, तीखर इसी के लिए अपने नये-नये अनूठे प्रयासों के लिए जाना जाता है। यही इसका ध्येय है और यही इसका उद्यम।
प्र.(2.)आप किसप्रकार की पृष्ठभूमि से आए हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:-
पृष्ठभूमि ही हमारी जीवनशैली निर्धारित करती है। कानपुर और इलाहाबाद के मध्य एक जिला है- फतेहपुर, उस जिले में सुदूर बसा एक छोटा कस्बा है- खखरेरू; जहाँ मेरा प्रारम्भिक जीवन बीता। आर्थिक अभाव के चलते बचपन, पढ़ाई के साथ-साथ व्यवसायिक कार्यों में संलग्न रहा। दिनभर के टास्क पूर्वनिर्धारित रहते थे। यह दिनचर्या मेरे लिए सुअवसर रहा। सामाजिक गतिवधियों से परिचित होना बचपन से ही सीख लिया। अध्यात्म में मेरे माता-पिता की अटूट आस्था थी और साहित्य में बड़े भैया की, जो कि मुझे बेहद प्रभावशाली लगा और मेरे अन्तस में एक अंकुरण प्रस्फुटित हुआ। क्षमता को तल्लीनता से स्वीकारना और उसका सदुपयोग करना मेरे बड़े भाइयों ने ही मुझे सिखाया। पढ़ाई के लिए कानपुर गया, जहाँ मुझे स्वयं के लिए पर्याप्त समय मिला। अकेले में अक्सर हम स्वयं से मुख़ातिब हो पाते हैं। उसके बाद दिल्ली आना हुआ। यहाँ का माहौल मेरे लिए एकदम नया था, लेकिन यहाँ बचपन का अनुभव काम आया। समाज के हर वर्ग से सहज बातचीत मुझे सबके नज़दीक लाता गया। बचपन की व्यवसायिक गतिविधियां भी काम आई और भैया के साथ एक स्टार्टअप प्लान किया। सॉफ्टवेयर इन्जीनियर के तौर पर कार्य करता हुआ मैं हमेशा ऊर्जस्वित रहा एवं साहित्य और अध्यात्म में निरन्तर उत्कण्ठा बनी रही। दो साल की कड़ी मेहनत के बाद अब महसूस हो रहा है कि साहित्य के परिप्रेक्ष्य में बेहतर करने की सम्भावना है। अध्यात्म इसलिये भी जरूरी है कि वह आपके अन्दर एक ऐसी चेतना जागृत करता है जो आपकी नियति को सम्बल प्रदान करती है।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से प्रेरित अथवा लाभान्वित हो रहे हैं ?
उ:-
आप एक बात पर विचार करिये ! हमारे बचपन के दिनों में हमारा दिन कितना बड़ा होता था। हम इन्तज़ार करते थे लंचटाइम का, शाम होने का और फिर रात होने का... पूरे दिन में हम कितना कुछ कर लेते थे, लेकिन अब हमारी व्यस्तताओं ने हमारे दिन को छोटा बना दिया। वस्तुत़:, समय उतना ही है; लेकिन हमारी दिनचर्या और हमारा रूटीन इसको बड़ा या छोटा दिखाता है। इन दिनों जब सबके पास समयाभाव है, हर कोई दिनभर सिर्फ वही कर पाते हैं, जो उनकी प्राथमिकताएं है। ऐसे में हमारी यह पीढ़ी ना चाहते हुए भी साहित्य और समाज से विमुख होती जा रही है। हम कम समय में उत्कृष्ट कन्टेंट उपलब्ध करा के उनको इस विमुखता से बचा रहे हैं। पढ़ना बहुत ही धैर्य का काम है, हम उनके धैर्य को चैलेंज नहीं करते हम उनको वही उपलब्ध कराने की कोशिश करते हैं, जो उनको हर दृष्टिकोण से पसंद आए। हमारा यह कार्य एक सम्भावना उत्पन्न करता है कि साहित्य, युवाओं के मध्य हमेशा प्रासंगिक बना रहे और आने वाली पीढ़ी इसे एक बीते जमाने का कल्चर ना माने ! हमारी कई शृंखलाएँ, जैसे- बाल-साहित्य, तीखर प्रभाकर, साहित्य संवाद आदि के माध्यम से साहित्य से अछूता एक आम आदमी भी पुस्तकें पढ़ने को प्रेरित होता है। पाठन आपकी वैचारिक शक्ति तीक्ष्ण करता है, आपको आत्मबल देता है, आपको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आपकी समस्याओं से अवगत कराता है और उसको दूर करने के प्रयासों में आपकी मदद करता है।
प्र.(4.)आपके कार्यों में जिन रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या आपके संगठन रूबरू हुए, उनमें से कुछ बताइये ?
उ:-
आँख मूँदकर नदी का चित्र सोचिये.... आपको वही नदी ज्यादा आकर्षक लगेगी जो पहाड़ों के बीच से होकर टेढ़ी मेढ़ी आई है। रुकावटें, बाधाएं वस्तुत: हमारा सौन्दर्य बढ़ाती हैं। स्वामी विवेकानंद कहते हैं- "जब आपके सामने समस्याएं ना आएं तो आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं।" रुकावटें आईं.... बेशक आईं, लेकिन मेरा ये सौभाग्य रहा है कि ऐसे समय में मुझे मेरे शुभचिंतकों का सहयोग जरूर मिलता है। मेरे परिवार ने हर तरह से आश्वस्त कर के मेरा मनोबल बढ़ाया। एक समय पर जब 'तीखर' के लिए मैंने अपनी जॉब छोड़ी तो आर्थिक असुरक्षा से चिंतित हुआ और तब मेरे परिवार ने मुझसे सवाल-जवाब करने की बजाय मुझे 'जो मैं चाहता हूँ' करने को प्रेरित किया। सहज प्रवृत्ति आपको हमेशा समस्याओं से निजात दिलाती है। नदी अगर अनम्य हो जाए, "नहीं मैं पहाड़ लाँघकर ही जाऊंगी" तो विद्रोह की अवस्था उत्पन्न होगी, जो कि घातक है। वह चुपचाप अपनी सहज धारा में बहती चली जाती है। बहुत सी छोटी-बड़ी समस्याएं आईं, लेकिन इस प्रवृत्ति के साथ मैंने बहुत ही आसानी से सबको फेस किया और आज दूर से देखने में सब समस्याएं छोटी ही नज़र आती हैं।
प्र.(5.)अपने कार्यक्षेत्र हेतु क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होने पड़े अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के शिकार तो न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाए ?
उ:-
आर्थिक दिक्कतों का जिक्र मैं ऊपर ही कर चुका हूँ। आर्थिक सम्पन्नता आपकी मूलभूत आवश्यकता है। सम्पन्नता से मेरा आशय आधिक्य से नहीं है...."साईं इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाए।" आर्थिक समस्याओं के चलते एक समय मुझे भी एकमात्र विकल्प यही दिखा कि यह सब छोड़कर पुन: अपनी जॉब में पूरी तरह से लग जाता हूँ। फिर थोड़ा चिंतन करने के बाद इसी क्षेत्र में रोजगार की सम्भावना तलाशी। आज बेशक से मेरी आमदनी उतनी नहीं है जितनी मैं डिज़र्व करता हूँ या जितना वेतन मुझे मेरी नौकरी से मिल रहा होता, लेकिन फिर भी मेरी सभी छोटी-बड़ी आवश्यकताएं पूरी हो रही हैं। बेहतर है कि जो भी आप कर रहे हैं, सर्वप्रथम वहाँ से अपनी आर्थिक सुरक्षा जरूर मेंटेन करें या फिर आप कुछ छोड़कर तभी दूसरे काम में आइये जब वह आपको थोड़ा ही सही, लेकिन आर्थिक सहयोग प्रदान कर सके।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट हैं या उनसबों को आपके कार्य से कोई लेना देना नहीं !
उ:-
प्रकृति आपके चुनाव में आपकी सबसे बड़ी सहायक होती है। बचपन से ही कला के क्षेत्र में दिलचस्पी रही, लेकिन फिर भी ट्रैक बदलते गये। जहाँ हिंदी में दिलचस्पी थी, वहीं ठीक इसके उलट इन्जीनियरिंग की पढ़ाई करनी पड़ी और फिर नौकरी भी.... लेकिन मेरी प्रकृति तो कलाप्रेमी थी। कहीं ना कहीं से अपने ठौर पर आ ही गया। मेरे नजरिये से चुनाव स्वतः घटित होने वाली प्रक्रिया है। आपकी तारतम्यता आपके अनुकूल कार्यों का चयन कर ही लेगी।
परिवार हमेशा आपको बेहतर करते हुए देखना चाहता है। हाँ, बेहतर की उनकी परिभाषा अलग या ग़लत हो सकती है। ऐसे में आपका दायित्व है कि आप उन्हें 'बेहतर' की अपनी परिभाषा से अवगत कराएं और उनको आश्वस्त करें कि आपके लिए इससे बेहतर कुछ नहीं है। एकबार आपका परिवार आश्वस्त हो गया, तो फिर वो आपका सहयोग करने में कोई कसर ना छोड़ेंगे।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ?
उ:-
यह कार्य कई सहयोगियों की ऊर्जाओं और स्नेह की बदौलत गतिवान है। बड़े भैया 'विनय अग्रहरि' के मार्गदर्शन में शनि अवस्थी, हिमांशु राय, अंशुल अग्रवाल, प्रतीक्षा तिवारी, मोहित मिश्र ये इस कार्य के प्रत्यक्ष सहयोगी के रूप में क्रियान्वित हैं। इनके इतर मेरे कई दोस्त जो समय-समय पर मुझे उचित सलाह और सुझाव देकर मुझे प्रेरित करते हैं। कुछ नाम ऐसे भी हैं जो मेरे लिए बेहद ख़ास हैं और जिनका सान्निध्य मेरा मनोबल बढ़ाए रखता है। इन सबके बीच मेरे परिवार का सहयोग भी अतुल्य है।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं ?
उ:-
संस्कृति के संचार का माध्यम है- साहित्य। संस्कृति का व्यापक, विस्तृत स्वरूप साहित्य से ही निर्मित हो सका है। वस्तुत: जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो साहित्य उसमें निहित होता है। तमाम धर्मग्रन्थ, पुराण, हदीस यह सब साहित्य ही थे जो हमारे लिए इतने पूज्य हो गये। सदियों पहले कबीर, तुलसी, मीरा इन्होंने हमें संस्कृति का जो स्वरूप निर्मित कर के दिया है वह साहित्य से सम्बद्ध है। आज के दौर में हम अपनी संस्कृति को सहजता से स्वीकारने में इसीलिए सक्षम हैं, क्योंकि हम उनसे अवगत है। सोचिये, यदि संस्कृति का बोध ही ना रहे तो... साहित्य वह हथेली है, जिनसे हम अपनी पीढ़ियों को संस्कृति सौंपते हैं।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-
हम सबने बचपन में एक कहानी पढ़ी है जिसमें एक बच्चा अपने पिता के कहने पर किसी खेत में चोरी के प्रयोजन से जाता है। उसका पिता यह कह कर उसे भेजता है कि जब कोई ना देख रहा हो तो फलां चीज उठा लाना। बच्चा खाली हाथ लौटता है और कहता है, "गुरू जी ने बताया था कि ईश्वर हर जगह है वह हमेशा हमें देखता है और आपने कहा था कि जब कोई ना देख रहा हो तभी उठाना।"
कहानी का मर्म समझिये.... यह एक प्रयास है, बचपन में ही बच्चों को सत्य और ईमानदारी के प्रति प्रेरित करने का। साहित्य व्यक्तित्व को नयी परिभाषाओं से अवगत कराता है। सही-ग़लत का फर्क करना बताता है। आपको एक बेहतर इन्सान बनाता है और बेहतर इन्सान ही भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाते हैं। हमारा कार्य संप्रेषण का है, बचपन की उन विलुप्त होती कहानियों को सुनाने का है, जो कि समाजहित में अग्रणी भूमिका निभाते हैं।
प्र.(10.)इस कार्यक्षेत्र के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे या कोई सहयोग प्राप्त हुए या नहीं ? अगर मिले, तो क्या ?
उ:-
मुरब्बे तब ज्यादा स्वादिष्ट लगते हैं, जब वो स्व-निर्मित हों। मेरी प्रवृत्ति संतुलन की रही है। जाति से बनिया हूँ तो लेन-देन के नियमों से अच्छी तरह से वाक़िफ भी हूँ। सहयोग एकतरफा हो तो उसकी अवधि बहुत कम होती है। बदले में आप क्या दे रहे हैं यह भी बहुत मायने रखता है। तमाम लोग हैं जो मेरे इस कार्य में आर्थिक सहयोगी हैं, लेकिन मेरी कोशिश रहती है कि उनके सहयोग का ऋण चुकाता चलूँ। हालांकि यह कोशिशें नगण्य हैं फिर भी तसल्ली है कि कुछ कर रहा हूँ।
प्र.(11.)आपके कार्यक्षेत्र में कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे का सामना करना पड़ा हो !
उ:- यह कार्यक्षेत्र बहुत ही सहज है, इन सब गतिविधियों की सम्भावना बहुत कम है। कभी-कभार धोखे होते हैं, चूक होती हैं, लेकिन अभी तक वह स्तर नहीं आ पाता जिनमें केस या मुकदमें जैसी दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न हो। चूंकि समाज इतना व्यवसायिक हो चुका है कि आने वाले समय में हर कार्यों में विसंगति उत्पन्न की जा सकती है इसलिये भविष्य में ऐसी स्थिति को फेस करने के लिए हम अभी से अपने आप को मजबूत बना रहे हैं।
प्र.(12.)कोई पुस्तक, संकलन या ड्राफ्ट्स जो इस संबंध में प्रकाशित हो तो बताएँगे ?
उ:-
कई जगह ऐसे इ्न्टरव्यूज़ हुए हैं। विभिन्न पोर्टल्स और आखबारों में 'तीखर' को स्थान मिला है, लेकिन अभी तक पुस्तक, संकलन इत्यादि प्रकाशित नहीं हुए हैं।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:-
सबसे बड़ा पुरस्कार आप स्वयं हैं। यह बात थोड़ी अजीब लगेगी, लेकिन इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से मैं स्वयं को प्राप्त करता हूँ। हम सब अपनी परिधि पर हैं केन्द्र से दूर, स्वयं से दूर। लोगों का स्नेह, सम्मान, समाज का एक विशेष नजरिया... ये सब ऐसे पुरस्कार हैं जिनको गिन पाना या गिनने की कोशिश करना वक्त गंवाने जैसा है। यह सब आत्मीय पुरस्कार है, जो हमें अपने कार्यक्षेत्र के प्रति निष्ठावान रहने को प्रेरित करते हैं। भौतिक पुरस्कार की बात करें तो वर्ष 2020 में मातृभाषा उन्नयन संस्थान द्वारा 'भाषा सारथी' सम्मान प्राप्त हुआ। इसके अलावा विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा भी विशेष पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए हैं।
प्र.(14.)कार्यक्षेत्र के इतर आप आजीविका हेतु क्या करते हैं तथा समाज और राष्ट्र को अपने कार्यक्षेत्र के प्रसंगश: क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:-
तीखर के अलावा लगभग 4 साल पहले स्टार्टअप के तौर पर एक आईटी कम्पनी शुरू की थी, जिसमें बतौर सर्विस हेड काम करता हूँ। डिज़ाइनिंग और मार्केटिंग मेरा पसंदीदा काम है सो कम्पनी के लिए मात्र आजीविका हेतु इन कार्यों का निर्वहन करता हूँ।
हमारा कार्यक्षेत्र आपको वह परिवेश देना चाहता है, वे लम्हें देना चाहता है जहाँ आप वो अनुभव कर सकें जो आपके भीतर कहीं मरणासन्न स्थिति में पड़ा है। मैं अक्सर कहा करता हूँ कि हम सबके भीतर एक तितली होती है जो इस प्रतीक्षा में रहती है कि कोई उसे आकर छू ले और वह फिर से वादियों में अपनी सुहास बिखराना शुरु कर दे। वह 'कोई' कोई भी हो सकता है व्यक्ति या फिर परिवेश... तीखर बस यही कहना चाहता है कि अनुभूति एक ऐसा गुण है जो प्रकृति के सभी जीवों में मनुष्यों को विशेष बनाती है। इसे यूँ ही मरने ना दें। जीवन को जियें, उल्लासित रहें, खूब पढ़ें, खूब लिखें, अपनी संस्कृति को अपनी धरोहर मानें बेशक उसमें वक्त के अनुरूप उचित बदलाव भी करें। इस प्रकार हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सशक्त समाज निर्मित कर के दे पाएंगे। साहित्य इन कार्यों को अधिक सहज बना पाएगा इसलिए इसको समग्रता से स्वीकारें।
आप यूँ ही हँसते रहें, मुस्कराते रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !
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