आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, पर्यावरण प्रेमी कवि श्री मिथिलेश कुमार राय जी की अद्वितीय कविता...
श्रीमान मिथिलेश कुमार राय |
अब दांत किटकिटाने लगेंगे
देह थरथराने लगेगी
पछिया इस तरह डोलने लगेगी
कि सारा दृश्य कुहरे में छिप जाएगा
यह पूस का महीना है
तापमान लगातार लुढ़कता जाएगा
अब गेहूं के नन्हें पौधे को प्यास लगेगी
लेकिन खेतों में जिन्होंने बीज बोए हैं
और उन बीजों में अंकुर फूटने का इंतज़ार किया है
वे मौसम की इस कंपकपी का एहसास नहीं करेंगे
उन्हें अलसवेरे या भिनसारे की परवाह नहीं रहेगी
वे रात और दिन का हिसाब नहीं रखेंगे
वे उनकी प्यास बुझाने में
अपना सुध-बुध भूले रहेंगे
एक माँ की तरह
वे व्याकुल रहेंगे
जैसे कि अपने दुधमुंहे बच्चे को
घर छोड़कर वे बाजार निकल आई हो
वे आधी-आधी रात को उठकर
खेतों में अभी-अभी उगे पौधे के बारे में सोचने लगेंगे
और उनकी प्यास के बारे में विचार करेंगे
वे मेड़ पर बैठ जाएंगे
और पानी पीते पौधों को तृप्त भाव से निहारेंगे
उनकी आँखों में नींद का द्वार तभी खुलेगा
और वे उसमें तभी उतरेंगे
जब वहां लहलहाते फसल के दृश्य जगमगाएंगे
सवेरे इनका चेहरा
हरा होकर तभी खिलेगा।
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