'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में मासिक 'इनबॉक्स इंटरव्यू' अनथक जारी है। अंग्रेजी का मई माह कई घटनाओं को लेकर जाने जाते हैं। तारीख 29 मई 1953 को धरती के सर्वोच्च शिखर 'एवरेस्ट' पर मानव के कदम पड़े। विक्रम संवत्सर लिए मई 2021 में महर्षि मेंहीं की जयंती 'वैशाख शुक्ल चतुर्दशी' और महात्मा बुद्ध की जयंती 'वैशाख पूर्णिमा' रही, इस पूर्णिमा की चाँद 'बड़ी' थी ! हम कोरोना के द्वितीय लहर और कहर सहित 'ब्लैक फंगस' बीमारी, टेक्टो या यास जैसे चक्रवातों के कारण कई स्मरणों को प्रतीक तौर पर ही मना पाए। ज़िंदगी की आयु सीमित होती जा रही है। प्रियजनों से दैहिक नहीं, अपितु डिजिटल तरीके से ही मिली जा रही है। ऐसे में अभी के समय के गंभीर चिंतक व लेखक प्रो. प्रबोध कुमार गोविल से ली गई 'इनबॉक्स इंटरव्यू' को 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' के पाठकों के लिए कॉलमबद्ध करना स्तुत्य प्रयास है। आइये, हम ऐसे व्यक्तित्व व कृतित्व के शब्दधनी 'प्रबोध सर' से लिए गए वार्त्ता में मार्मिकता की खोज करते हैं। बकौल, गोविल जी- "मैं आने वाली पीढ़ी को यही संदेश देना चाहूंगा कि अपनी विरासत को भली-भांति पड़ताल करके ही अपनाएं। शिक्षा जैसी बुनियादी जीवन-ज़रूरतों के प्रति अगंभीर न हों। अपना दृष्टिकोण राष्ट्रीय की जगह वैश्विक रखें और हमेशा ये सोचें कि जीवन में अपने सबसे बड़े सहायक हम ख़ुद ही हैं।"
प्रो. प्रबोध कुमार गोविल |
प्र. (1.)आपके कार्यों /अवदानों को सोशल/प्रिंट मीडिया से जाना। इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के बारे में बताइये ?
उ:-
मुख्य रूप से मेरा कार्यक्षेत्र साहित्य है, किंतु साहित्य के साथ पत्रकारिता, संपादन आदि कार्यों से भी मैं जुड़ा रहा हूँ। एक शैक्षिक प्रशासक के रूप में मुझे अपने विचारों को लिखने, अन्य तरीकों से अभिव्यक्त करने व निष्पादित करने के अवसर भी मिले हैं। यद्यपि मेरी मुख्य विधा उपन्यास और कहानी ही रही है, तथापि मैंने लघुकथा, बाल साहित्य, नाटक, संस्मरण के साथ फ़िल्म लेखन भी किया है।
प्र.(2.)आप किसप्रकार के पृष्ठभूमि से आए हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:-
मैं एक शिक्षित परिवार से हूँ। मेरे परिवार में महिलाएं भी शिक्षित और सेवा कार्य करने वाली रही हैं। इससे मुझे रचनात्मकता के लिए अच्छा वातावरण तो मिला, साथ ही अपने कार्यों को संपन्न करने के लिए चर्चा और परामर्श का परिवेश भी मिला है। एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विश्वविद्यालय परिसर में रह कर ही मेरी आरंभिक शिक्षा हुई।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से प्रेरित अथवा लाभान्वित हो रहे हैं ?
उ:-
एक प्रोफ़ेसर व निदेशक के रूप में लंबी सेवा देने से जहां मेरे विद्यार्थी व संस्थान सीधे लाभान्वित हुए हैं, वहीं मेरी क्रिएटिव राइटिंग ने नए लेखकों को भी आकर्षित किया है। मैंने समीक्षात्मक कार्य में भी समय दिया है। नाट्य और फ़िल्म लेखन से कलाकार, निर्माता आदि प्रभावित होते हैं। लेखन में नवोन्मेष मेरा प्रिय शगल रहा है। मेरी रचनाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी बहुत हुए हैं, जिससे अन्य क्षेत्रों के लोग भी लाभान्वित हुए हैं। मेरा उपन्यास "जल तू जलाल तू" 11 भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। अन्य किताबों के कई भाषाओं में प्रकाशन हुए हैं।
प्र.(4.)आपके कार्यों में जिन रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या आपके संगठन रूबरू हुए, उनमें से कुछ बताइये ?
उ:-
मुझे शुरू में लगा था कि अखिल भारतीय सेवा में बार-बार शहर और राज्य बदल जाने से मेरे लेखन में व्यवधान आयेगा, किंतु मुझे मुंबई, दिल्ली, उदयपुर, कोल्हापुर, जबलपुर, जयपुर, ठाणे जैसे शहरों में लंबे समय तक रहने से पर्याप्त अनुभव भी हासिल हुए हैं। मुझे सबसे बड़ा व्यवधान यह लगा कि मैं साहित्य की स्थानीय प्रकृति की संस्थाओं व अकादमियों से नहीं जुड़ सका ! ज़्यादातर अकादमियां स्थानीय और एक ही स्थान पर लंबे समय तक रहने वाले लोगों को ही प्रश्रय देती हैं। मुझे बार-बार नए परिवेश में जाकर नए सिरे से वातावरण बनाना पड़ा। अकादमियां एक राज्य में निश्चित समय तक रहने की शर्तें रखती हैं। ऐसे में उनसे जुड़ना कठिन हो जाता है।
प्र.(5.)अपने कार्यक्षेत्र हेतु क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होने पड़े अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के शिकार तो न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाए ?
उ:-
मैं आर्थिक दिक्कत से तो दो - चार नहीं हुआ, क्योंकि मैं एक ऐसे परिवार से हूँ, जहां लगभग सभी शिक्षित और स्वावलंबी थे/हैं, किंतु मुझे ये बात ज़रूर परेशान करती थी कि साहित्य के क्षेत्र में, विशेष रूप से हिंदी में, जिससे मैं संबंधित रहा, आय बहुत ही कम है और केवल इसके सहारे आजीविका नहीं चल सकती ! जो लोग ऐसा कर पाने का दावा करते हैं, वो अपने लेखन की गुणवत्ता से समझौता करते देखे जा सकते हैं। हां, अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। फ़िल्म व टीवी लेखन में भी पर्याप्त आय है।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट हैं या उनसबों को आपके कार्य से कोई लेना देना नहीं !
उ:-
मुझे अपने विचार लोगों के सामने रख पाने का सबसे सुगम तथा रचनात्मक उपाय यही लगता था/है, इसलिए मैं इस क्षेत्र में आया। मेरे परिवार के सभी लोग आत्मनिर्भर हैं और इस बात से ख़ुश हैं कि मैं यहां संतुष्ट हूँ। यद्यपि वो लोग इसे कोई बड़ी उपलब्धि नहीं मानते हैं, किंतु उनका संतोष इस आधार पर है कि मैंने सेवानिवृत्त हो जाने के बाद भी इस माध्यम से अपने को व्यस्त रखा है। पर मैं यह भी कहूंगा कि इस क्षेत्र में आकर मैं अपने घर-परिवार को कुछ नहीं दे सका। जो कुछ मिला, वो केवल मेरी छवि में जुड़ा है, किसी परिजन के बैंक खाते में नहीं।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ?
उ:-
मुझे लगता है कि अब तो अपना सहयोगी केवल मैं हूँ। मेरा भाषाज्ञान मेरा सहायक है। एक लंबा अनुभव लिए यायावरी जीवन मेरी धरोहर है और वही सृजन में मेरा सहायक भी है, किंतु आरंभ में मुझे पत्नी और बच्चों से तकनीकी सहयोग मिला है। यदि ये नहीं मिलता तो मैं इतना काम नहीं कर पाता !
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं ?
उ:-
मेरा लेखन भारतीय संस्कृति से संबंधित ही है, किंतु यह भारतीय संस्कृति के उस पक्ष पर प्रहार भी करता है, जो हमें दकियानूसी और रूढ़िवादी बनाता है। पारंपरिकता को जड़ता से अलग करने की कोशिश मैंने हमेशा की है। मुझे लगता है कि हमारा प्राचीन साहित्य आधुनिक जीवन दे पाने में कभी- कभी बाधक बनता है। हम कुछ ग्रंथों को जीवन का अंतिम सत्य मानकर ठहर गए हैं। ये ग्रंथ हमारी बेड़ियां बन गई हैं। हममें से कुछ लोग इस मुगालते में जी रहे हैं कि अब तक सब कुछ लिखा जा चुका है और अब जो पीढ़ियां जन्म लें, वो इन्हीं ग्रंथों की जुगाली में जीवन बिताएं। हमें आज ज़रूरत संस्कृति को अक्षुण्ण रखने से ज़्यादा संस्कृति के सतत परिमार्जन को अक्षुण्ण रखने की है।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-
मैंने अपने लेखन में हमेशा भ्रष्टाचार को एक पाशविक दैत्य मानकर ही बर्ताव किया है। मेरा लेखन भ्रष्टाचार से जानी दुश्मन की तरह लड़ता है। मुझे लगता है कि समाज और राष्ट्र के रूप में हम भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुके हैं और अब हमें इससे मानवता के मौलिक अधिकारों के खिलाफ जाने की हद तक लड़ना चाहिए।
प्र.(10.)इस कार्यक्षेत्र के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे या कोई सहयोग प्राप्त हुए या नहीं ? अगर मिले, तो क्या ?
उ:-
मुझे आर्थिक सहयोग नहीं मिला, क्योंकि मेरा लेखन इसके लिए आवश्यक योग्यता पूरी नहीं कर पाता। मैं जानता हूं कि भ्रष्टाचार का पक्षधर बन कर इसे आसानी से हासिल किया जा सकता है। आज के समाज में हम या तो "ग़लत" के साथ चलने के लिए तैयार हों, या फ़िर कथनी और करनी अलग - अलग रखने में सिद्धहस्त हों, तभी ये सुविधाएं मिल सकती हैं, क्योंकि अब ये सुविधाएं प्राय: ग़लत हाथों में हैं। ये बात किसी व्यक्ति, दल या विचारधारा की नहीं है, बल्कि हम सब के दिमाग़ में बैठकर छल की है।
प्र.(11.)आपके कार्यक्षेत्र में कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे का सामना करना पड़ा हो !
उ:-
मैंने धोखा कभी नहीं खाया, क्योंकि मैंने एक विश्वस्त सकारात्मक सोच के साथ जीवन गुज़ारा। मैं इस दोष से इसलिए बचा रहा, क्योंकि लाभ के लालच में ग़लत या गंदगी के साथ गया ही नहीं।
प्र.(12.)कोई पुस्तक, संकलन या ड्राफ्ट्स जो इस संबंध में प्रकाशित हो तो बताएँगे ?
उ:- इस प्रश्न के उत्तर में सूची संलग्न है।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:- सूची संलग्न है।
प्र.(14.)कार्यक्षेत्र के इतर आप आजीविका हेतु क्या करते हैं तथा समाज और राष्ट्र को अपने कार्यक्षेत्र के प्रसंगश: क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:-
मैं एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हूँ तथा आजीविका के लिए एक तेज़ी से घटते हुए कोश पर ही अवलंबित हूँ। जिस रफ़्तार से महंगाई व जीवन व्यय बढ़ रहा है, स्वास्थ्य सेवाएं कपटपूर्ण हो रही हैं, मुझे लगता है कि भविष्य के लिए ज़्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं आने वाली पीढ़ी को यही संदेश देना चाहूंगा कि अपनी विरासत को भली-भांति पड़ताल करके ही अपनाएं। शिक्षा जैसी बुनियादी जीवन-ज़रूरतों के प्रति अगंभीर न हों। अपना दृष्टिकोण राष्ट्रीय की जगह वैश्विक रखें और हमेशा ये सोचें कि जीवन में अपने सबसे बड़े सहायक हम ख़ुद ही हैं।
आप हँसते रहें, मुस्कराते रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !
नमस्कार दोस्तों !
0 comments:
Post a Comment