आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट की टटका कड़ी में पढ़ते हैं, उपन्यास वेंटिलेटर इश्क़ के लेखक द्वारा समीक्षित कथासम्राट प्रेमचंद की कहानी बेटों वाली विधवा की अद्वितीय समीक्षा.......
प्रेमचंद रचित कथा 'बेटों वाली विधवा' !
कुछ भोज खिलानेवाले लोग झूठी शानोशौकत को बरकरार रखने के लिए अपनी चादर फैलने से अधिक खानेवाले को आमंत्रित करते हैं, फिर भोज में जगह की कमी के कारण कुछ सामूहिक पंगत के लोगों को खाने के बाद पुन: वहीं पर दूसरे-तीसरे आदि समूहों को खिलाये जाते हैं, जिनसे जूठेवाली जगह ठीक से साफ नहीं हो पाती और हम जूठे पर ही खाने को विवश हो जाते हैं ! यह सुप्रथा है या कुप्रथा !
क्या ऐसी बातों को लेखक महोदय ने ध्यानबद्ध नहीं किए ? क्या उस समय बड़घरिया (मजबूत परिवार) के यहाँ भी कुँए (कुएँ) नहीं होते थे, जबकि कथाकार ने 'नल' को भी दृष्टिगत किया है ? क्या उस काल में भी लोग बर्फमिश्रित पानी पीते थे ? क्या तब दिक्कतें या परेशानियाँ एक ही समय में कई-कई बार आ जाया करती थी ?
अगर मरने के बाद मृतक के नाम पर भोज करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है, तो ज़िंदा रहते कोई कैसे भूखे मर रहे हैं ? भूखे को खाना मिल जाय, तो उन्हें कितनी शांति मिलेगी ? पता है न ! क्या बहनों के लिए भाइयों का फ़र्ज़ कथानुसार ही होता है ?
जो भी हो, प्रेमचंद की प्रस्तुत कहानी में एक पात्र तो स्वयं लेखक है ! प्रेमचंद ने अपनी किसी एक कथा में ब्रह्मभोज (शायद मृतक भोज !) का विरोध किया है, वहीं प्रस्तुत कथा में वे इसे सपोर्ट करते हुए नजर आ रहे हैं !
0 comments:
Post a Comment