आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट की टटका कड़ी में पढ़ते हैं, उपन्यास वेंटिलेटर इश्क़ के लेखक द्वारा समीक्षित कथासम्राट प्रेमचंद की कहानी डिक्री के रुपये की शानदार समीक्षा.......
प्रेमचंद रचित कथा 'डिक्री के रुपये' !
क्या न्याय खरीदे जा सकते हैं ? पहले तो 'हाँ' और उनकी ही कथा 'पंच परमेश्वर' को लेकर बाद में 'ना' ! आज भी न्याय पाने महँगे हैं ! क्या प्रेमचंदीय युग में 20 हज़ार रुपये मामूली रकम होती थी ?
कोई कितना भी सही क्यों न हो, किन्तु जब स्वयं पर आफ़त आ जाती है, तो खुद को बचाने के लिए झूठ का सहारा लेना पड़ता है ! वकालती कार्यवाही से यही कुछ निसार आ पैठती है, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? प्रस्तुत कथापात्र कैलास (कैलाश) के पास रुपये कहाँ से आए ? यह स्पष्ट नहीं हो सका है ?
जो भी ही, प्रेमचंद की कहानी 'डिक्री के रुपये' में कथापात्र नईम और कैलास को लेकर जो भी कथात्मक चरित्र-चित्रण लेखनीबद्ध हुई है, यह विवरण किसी भी पाठक को बोझिल लगेगा, क्योंकि इसतरह का परिचय मनोमस्तिष्क में टिक नहीं पाती है, एक जगह स्थिर नहीं हो पाती है कि कौन क्या है ? ....बावजूद कथा कभी बाँधती है, तो कभी मानस बुलबुले में छेड़ती भी है !
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