आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट की टटका कड़ी में पढ़ते हैं, उपन्यास वेंटिलेटर इश्क़ के लेखक द्वारा समीक्षित कथासम्राट प्रेमचंद की कहानी जुर्माना की लघु समीक्षा.......
प्रस्तुत कथा में प्रवेश करते हैं, तो पाते हैं कि लोगों को नौकरी जाने का डर है या नहीं, पता नहीं ! ....किन्तु नशा छोड़ने का डर नहीं, ऐसी कथामीमांसा लिए है ?
क्या गाली खाने से हृदय परिवर्त्तन हो सकता है ? अगर ऐसा है तो फिर ऐड़े, बेवड़े या पगले तो रोज-ब-रोज गालियाँ खाते हैं, परंतु उनमें कोई परिवर्त्तन क्यों नहीं दिखते हैं ?
जो भी हो, प्रेमचंद रचित कहानी 'जुरमाना या जुर्माना' की कथा उस वक्त के जीवन की वास्तविक सच्चाई हो सकती है, किन्तु वर्त्तमान समय में इस 'सच' से पेट भी भरा न जाय ! अगर पेट भर भी गया या भूख की तृप्ति हो भी गयी, तो भी जठररस में उतने सामर्थ्यता नहीं कि उसे पचने लायक बना सके !
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं। इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय।
0 comments:
Post a Comment