मैसेंजर ऑफ आर्ट का मासिक स्तम्भ 'इनबॉक्स इंटरव्यू' का सफ़र अनवरत जारी है और यह जुलाई 2021 में आ पहुँची है। 'गुरु पूर्णिमा' के कारण यह माह ऐतिहासिक है, चूँकि आषाढ़ पूर्णिमा इसी माह रही, तो वहीं जल फ़ुहार और मूसलाधार बारिश के साथ सदाबहार मौसम लिए सावन माह दमखम के साथ आग़ाज़ कर चुकी है। हिंदी साहित्य में यायावरी रचनाओं को लेकर कई गुरु (आचार्य) हुए हैं, किन्तु इस मायने में गुरुआइन (आचार्या) की चर्चा हो अगर तो 'महादेवी वर्मा' के बाद विचारों का दृष्टिकोण सिर्फ़-ब-सिर्फ़ एकमात्र नाम पर ही आकर ठहरती है, वह नाम है- डॉ. संतोष श्रीवास्तव। कथालेखन से साहित्यिक यात्रा शुरू कर प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक के बाद अब सोशल मीडियाई प्लेटफॉर्म पर 50 वर्षों से अधिक समय से हर विधा में चर्चा की केंद्रबिंदु बनी रही श्रीमती संतोष मैडम ने मैसेंजर ऑफ आर्ट के लिए 'इनबॉक्स इंटरव्यू' दी है और यह सपनों में तैर रहे नवलेखकों को वास्तविक संसार में 'जगे रहने' की सबसे संतुलित सीख है। मैडम के प्रति सादर आभार के साथ आइये 'इनबॉक्स इंटरव्यू' से हम रूबरू होते है....
डॉ. संतोष श्रीवास्तव |
प्र.(1.) आपके कार्यों/अवदानों को सोशल/प्रिंट मीडिया से जाना। इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के बारे में बताइये ?
उ:-
पिछले 50 वर्षों से मैं लिख रही हूँ, तब सोशल मीडिया पर इस तरह की साहित्यिक वेबसाइट, पोर्टल, ब्लॉग, ऐप नहीं थे। प्रिंट मीडिया के द्वारा ही पहचान बनाई। देश की सभी स्तरीय पत्रिकाओं धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, हंस, वागर्थ, ज्ञानोदय, कहानी, दस्तावेज इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। बहुत सारी नई पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ मेरे साहित्य के प्रकाशन का दायरा भी बढ़ा। कथादेश, कथाक्रम, पाखी इत्यादि, लेकिन जैसे ही सोशल प्लेटफॉर्म पर पदार्पण किया तो लाखों की सँख्या में पाठक मिले। मातृभारती, प्रतिलिपि, स्टोरी मिरर, गद्य कोष, पद्य कोष, हिंदी समय इत्यादि ऐसे साहित्यिक प्लेटफॉर्म हैं, जहाँ प्रकाशित रचनाओं ने विश्व स्तर पर मेरे साहित्य को पहुंचा दिया। अब तो प्रवासी लेखकों द्वारा विदेशों से जो पत्रिकाएं प्रकाशित की जा रही हैं, वहाँ मेरी कहानी, कविता, यात्रा संस्मरण, साक्षात्कार इत्यादि लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। कहानियों के ऑडियो भी 'गाना' एप पर उपलब्ध हैं। मैंने गद्य लेखन से शुरुआत की। फिर पद्य लेखन में भी काम करना शुरू किया। मेरा पहला कविता संग्रह "तुमसे मिलकर" अत्यधिक चर्चित हुआ। गजलें भी लिखीं, जिन्हें सुनाने के अवसर समृद्ध मंच पर मिले। पत्रकारिता के साथ साथ चार पत्रिकाओं की अतिथि संपादक भी रही।
प्र.(2.) आप किसप्रकार के पृष्ठभूमि से आए हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:-
साहित्य ईश्वरीय देन है और मुझे तो ये विरासत में भी मिला है व मेरे खून में रचा बसा है। अगर ये कहूँ कि मेरे डीएनए में साहित्य है, तो अन्यथा न होगा। मेरे पिता दर्शन शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे, उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। मेरे बड़े भाई विजय वर्मा जिनकी स्मृति में हर वर्ष विजय वर्मा कथा सम्मान दिया जाता है, लेखक थे। चूँकि वे पत्रकार थे, इसलिए घर में साहित्यकारों के साथ-साथ पत्रकारों का भी आना-जाना था। पूरा साहित्यिक माहौल था। असर तो पड़ना ही था, लेकिन मेरी जीवन धारा बदलने वाली कहानी कुछ और ही थी। मेरे पिता एडवोकेट थे और वे मुझे भी एडवोकेट के रूप में देखना चाहते थे। स्कूल के दिनों से ही वे मुझे अपने ऑफिस ले जाने लगे जहाँ मैं उनके मुवक्किलों के केस सुनती थी और अन्दर ही अन्दर कुछ पिघलता महसूस करती थी। शायद एक लावा जिसने मेरे अन्दर कई प्रश्नों को जन्म दिया और मैंने देखा वे सारे प्रश्न औरत से जुड़े हैं। औरत के लिए हैं। उन प्रश्नों ने मेरे अंदर इस ‘जुड़े’ और ‘लिए’ के खिलाफ कलम के जरिए खड़े होने की ऊर्जा पैदा की और मैं एडवोकेट बनते-बनते साहित्यकार बन बैठी। माँ स्वयं गीत लिखती और गाती थीं। वे उर्दू-फारसी की अच्छी जानकार थीं। हमेशा कहतीं "एक दिन तू सूरज सी चमकेगी।" उनकी इस सोच को यथार्थ रूप देने में जी-जान से जुटी हूँ। उनका आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहा। यही वजह है कि राही सहयोग संस्थान रैंकिंग 2018, 2019 और 2020 में वर्तमान में विश्व के टॉप 100 हिंदी लेखकों में मेरा नाम शामिल है और भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा विश्व भर के प्रकाशन संस्थानों को शोध एवं तकनीकी प्रयोग हेतु देश की उच्चस्तरीय पुस्तकों के अंतर्गत मेरे उपन्यास 'मालवगढ़ की मालविका' का चयन हुआ।
मेरी पहली कहानी सत्रह वर्ष की उम्र में मुम्बई की लोकप्रिय साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग (संपादक डॉ धर्मवीर भारती) में प्रकाशित हुई। मेरे पहले प्रशंसक कथासम्राट प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय जी थे। उन्होंने और कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के लेखक पुत्र विजय चौहान जी ने मुझे इससे भी अधिक प्रौढ़ लेखन का आशीर्वाद दिया। तब से अब तक यह सिलसिला जारी है। बीच में लगभग छह वर्ष तक मेरी गंभीर बीमारी और अवसाद की वजह से लेखन रुका रहा। पर वह मेरे जीवन का राहुकाल था। उसे बीतना ही था। बीत गया। छह वर्ष के अंतराल के बाद जब मैंने कलम थामी तो मेरे अंतरंग मित्र और मुम्बई से निकलने वाली पत्रिका ‘सबरंग’ के संपादक धीरेन्द्र अस्थाना ने सबरंग के लेखकों के लिए विशेष स्तंभ ‘तुर्की-ब-तुर्की’ में मुझे छापकर लेखन के सूखे से मुझे उबार लिया। तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा, लेखन का सफर जारी है।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किस तरह से प्रेरित अथवा लाभान्वित हो रहे हैं ?
उ:-
मैं नवांकुरों की एक ऐसी पौध तैयार करना चाहती थी, जो स्तरीय लेखन का वट वृक्ष बने। मैंने 8 मार्च 2014 को अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर मुंबई में अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच की स्थापना की। जिसका उद्देश्य था साहित्य,नाट्यकला और चित्रकला में छुपी हुई प्रतिभाओं को मंच प्रदान करना, लेकिन यह कार्य एक जगह रह कर नहीं किया जा सकता था। इसके लिए हमें घूम-घूम कर प्रतिभाओं की खोज करनी थी। अत: विश्व मैत्री मंच के उद्देश्यों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों को भी शामिल किया गया ताकि प्रतिभाओं को मंच दिया जा सके। एक प्रकार से यह टैलेंट हंटिंग का काम था। मुझे खुशी है, देश-विदेश में जो हिंदी साहित्य के विभिन्न विषयों पर परिचर्चा, प्रपत्र, विभिन्न विधाओं पर साझा संकलन प्रकाशित कर तथा विभिन्न विधाओं पर पांच पुरस्कारों का आयोजन कर हमने अब तक 8 प्रदेशों में 8 शाखाएं इस संस्था की स्थापित कर ली है। इसकी लोकप्रियता इसी में है कि इस संस्था में शामिल होने के लिए साहित्यकार मेरे पास आवेदन पत्र भेजते हैं।
इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच के फेसबुक समूह में नए और पुराने साहित्यकारों का एक घंटे का लाइव प्रसारण कर हम उनका साहित्य उन्हीं की जुबानी दूर-दूर तक पहुंचाते हैं।
प्र.(4.)आपके कार्यों में जिन रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या आपके संगठन रूबरू हुए, उनमें से कुछ बताइये ?
उ:-
मेरा संपूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित है। जीवन है, तो रुकावटें तो आएंगी; लेकिन मैंने उन रुकावटों को नजरअंदाज कर समय से दोस्ती कर ली। अत: दिन के चौबीस घंटों में ऐसा समय निकल ही आता है, जो नितांत मेरा अपना होता है। अपने उपन्यास "टेम्स की सरगम "और "मालवगढ़ की मालविका" लिखने में मुझे क्रमश: 5 और 7 वर्ष लगे। चूँकि दोनों ही उपन्यास भारत की आजादी के प्रयासों में कथा-सूत्र बुनते रहे। "मालवगढ़ की मालविका" मैंने सती प्रथा के विरोध में लिखा। इन सबके लिए आंकड़े जुटाने थे, जो बड़ा श्रमसाध्य कार्य था। उस वक्त लगता था जैसे कलम अब न चलेगी। यहीं अंत हुआ समझो। इन दोनों ही उपन्यासों पर आलोचनात्मक ग्रंथ, अंग्रेजी में अनुवाद तथा गाना ऑडियो बुक पॉडकास्ट शो से ऑडियो वर्जन प्रसारित हो रहे हैं। संस्था के काम निर्बाध गति से चलते रहे और इसकी हर योजना हर कार्य को सभी सहयोगियों का बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला। दुबई, रूस, भूटान और उज्बेकिस्तान में सम्मेलन आयोजित करने की वजह से विदेशी लेखक भी संस्था के सदस्य बनने को अग्रसर हुए। जो हमारी बड़ी सफलता है।
प्र.(5.) आपका सृजन समकालीन समाज का दर्पण है ? आपके विचार ।
उ:-
साहित्य समाज का दर्पण ही होता है। हाँ, जब फेंटेसी, तिलिस्म, भूत-प्रेत की रचनाएं लिखी जाती है, तो वह केवल मनोरंजन के लिए होती है। साहित्य मनोरंजन नहीं है। उसमें अनुभूति की तीव्रता और भावना की प्रधानता होनी चाहिए । श्रेष्ठ साहित्य एक सार्थक, स्वतंत्र एवं संभावनाशील विधाओं से जीवन के यथार्थ, अंश, क्षण, खंड, प्रश्न, केंद्र बिंदु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करता है। संवेदना ही एक ऐसी चीज है, जो साहित्य और समाज को जोड़ती है। साहित्यकार के अंतस में युगचेतना होती है। दूर क्यों जाएं, मेरे उपन्यास "मालवगढ़ की मालविका" को ही लीजिए ! वर्षों पहले कानूनी रोक लगा दी गई सती प्रथा की इक्का-दुक्का घटनाएं समाज में घटित होती ही रहती है। मैंने इसे आधार बनाकर एक ऐसी स्त्री की रचना की है, जो आज के संदर्भ में भी इससे जुड़े सवालों से दो-चार होती है। 'मंगल पांडे' फिल्म में भी उपन्यास का एक अध्याय फिल्माया गया है। जब नायिका को सती होने ले जाया जा रहा है और पति की चिता पर बैठते ही एक अंग्रेज हवा में गोलियां दागता आता है और चिता से नायिका को उठाकर घोड़े पर बिठाकर ले जाता है । वह विरोध करती है। गांव वाले अंग्रेज के बंगले पर पत्थर बरसाते हैं पर अंग्रेज यही वाक्य दोहराता है कि वे तुम्हारा मर्डर कर रहे थे। इसी तरह "लौट आओ दीपशिखा" उपन्यास में मैंने पाश्चात्य संस्कृति 'लिव इन रिलेशनशिप' के गुण-दोष बताए हैं। यह उपन्यास फिल्म अभिनेत्री परवीन बॉबी के जीवन पर केंद्रित है, हालांकि उपन्यास की नायिका अभिनेत्री नहीं, चित्रकार है, लेकिन परवीन बॉबी के जीवन की सारी सच्चाइयाँ उस पर केंद्रित हैं, तो मैं कह सकती हूँ कि मेरे लेखन ने समकालीन समाज से जुड़ने की कोशिश की।
प्र.(6.) आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट हैं या उनसबों को आपके कार्य से कोई लेना देना नहीं !
उ:-
जैसा कि मैं पहले भी बता चुकी हूँ कि मेरा पूरा परिवार साहित्यिक है, रही बात मेरे द्वारा यह क्षेत्र चुनने की तो मैं एक खौलते लावे को अपने अंदर महसूस करती थी। समाज की विसंगतियां पितृसत्ता की कठोरता और लड़के-लड़की में भेदभाव की घटनाएं मन को उद्वेलित करती थीं। बाबूजी का दफ्तर घर के बाजू में होने के कारण मैं ध्यानपूर्वक उनके मुकद्दमे सुनती। जिनमें स्त्रियों पर हुए अत्याचार की पराकाष्ठा का बयान होता था। मैं स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ती थी, लेकिन मेरे अंदर का उबाल घटनाओं से प्रेरित होकर बाहर आने लगा। बचपना जरुर था लेखन में....... उन दिनों की डायरी के पीले पड़ चुके पन्ने आज भी मेरे लेखन में घुसपैठ कर खुद को लिखवा लेते हैं मुझसे। मेरी पहली कहानी 17 वर्ष की उम्र में मुंबई से निकलने वाले प्रतिष्ठित पत्र धर्मयुग में प्रकाशित हुई, तो आज तक पीछे मुड़कर नहीं देखा । पत्रकारिता मुम्बई से आरंभ हुई। डेस्क वर्क करना नहीं था। फ्री लांस ही किया। उन दिनों मुम्बई लेखकों, पत्रकारों और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन का गढ़ था। धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती ने मुझे धर्मयुग के लिए बाल मनोरोग का स्तंभ 'अंतरंग' लिखने को दिया था। तब धर्मयुग साप्ताहिक था, लेकिन 'अंतरंग' हर पखवाड़े छपता था। इस स्तंभ को लिखने में मैंने बहुत मेहनत की। मुझे मनोरोग स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के पास जाना पड़ता था। जिनसे केस हिस्ट्री लेकर मैं लिखती थी। यह कॉलम बहुत चर्चित हुआ और लगातार दो साल तक चला। फिर स्त्री मनोरोग का स्तंभ भी मैंने साल भर लिखा। उन्हीं दिनों नवभारत टाइम्स में भी विश्वनाथ सचदेव ने मुझसे स्त्री विषयक स्तंभ मानुषी के लिए लिखवाया। भोपाल से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका समरलोक में मेरा अंगना कॉलम आज तक जारी है। यह कॉलम मैंने वर्ष 2000 में लिखना आरंभ किया था। इस कॉलम के लिए भी मैंने आंकड़े जुटाकर स्त्री विषयक लेख लिखे। जिनका संग्रह "मुझे जन्म दो माँ" नाम से सामयिक प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक पर राजस्थान के डीम्ड विश्वविद्यालय से मुझे पीएचडी की मानद उपाधि भी मिली तथा यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में रेफरेंस बुक के रूप में मान्य है।
प्र.(7.) आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ?
उ:-
मेरा पारिवारिक माहौल सबसे बड़ा सहयोगी रहा। मेरे माता-पिता,भाई-बहन और सबसे बढ़कर मेरे पाठक जो मेरी हर रचना पर टेलीफोन से, पत्र लिखकर या ईमेल के जरिए अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। मेरे पास पत्रिका बाद में पहुंचती है और उनके द्वारा फोन या मैसेज पहले आ जाता है कि आप की कहानी, आपकी कविता या लेख फलां पत्रिका में पढ़ा है। मेरे पाठक ही मेरे सबसे बड़े आलोचक हैं। उनके और मेरे बीच एक ऐसे पुल का निर्माण हुआ है, जिसके नीचे मेरे लेखन की नदी बहती है और उस पुल पर मैं अपने पाठकों से रूबरू होती रही हूँ। विभिन्न पत्रिकाओं के संपादकों ने भी मेरी रचनाएं छाप कर मेरी हौसला अफजाई की। मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक भी प्रकाशित किए। अंबाला से निकलने वाली पत्रिका 'पुष्पगंधा' का मेरे ऊपर केंद्रित विशेषांक, जिसे विकेश निझावन जी ने संपादित किया था बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ और जब मैं अंबाला गई तो मेरे प्रशंसकों का मुझे बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला।इसके अलावा मेरी पुस्तकों के प्रकाशको ने मेरी पुस्तकें प्रकाशित करने में भी मुझे बहुत सहयोग दिया।
प्र.(8.) आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं ?
उ:-
मैं अपने यात्रा संस्मरणों को बहुत कुछ भारतीय संस्कृति के नज़दीक पाती हूँ। मैंने 26 देशों की यात्रा की, जिनमें 18 देशों के यात्रा वृत्तांत का संकलन "नीले पानियों की शायराना हरारत" नमन प्रकाशन से 2013 में प्रकाशित हुआ और उस पर मुझे मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल का नारी लेखन पुरस्कार भी मिला ।
अध्यापन के दौरान पूरा भारत तो कॉलेज और स्कूल के टूर करते हुए देख ही लिया था। उसके बाद 2004 से विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ। चीनी यात्री फाह्यान-व्हेनसांग आदि की एक बड़ी भूमिका रही है, सांस्कृतिक संबंधों को अपनी यात्राओं से प्रगाढ़ करने की। बौद्ध धर्म को मानने वाले दुनिया के 18 देश हैं। महात्मा बुद्ध भी अपने अनुयायियों के सहित यात्रा करके बौद्ध धर्म की कीर्ति फैलाते रहे। डॉ. कोटनीस, डॉ. सुनायात्सेन, सिल्क रूट के सर्जक, व्यापारी सभी यात्राओं के द्वारा ही व्यापारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संबंधों को अन्य देशों में बढ़ाते रहे, लेकिन मेरी यात्राएँ साहित्यिक थीं और मैं विश्व स्तर पर हिंदी के लिए कार्यरत थी। मेरे लिए दुनिया को देखना आवश्यक भी था, क्योंकि मैं लेखिका हूँ और जब तक दुनिया की नब्ज नहीं पहचानूँगी लिखूंगी क्या ? मैं जहाँ-जहाँ गई वहाँ की ग्रामीण संस्कृति को मैंने करीब से देखा, क्योंकि गाँव ही है जहाँ देश की संस्कृति जीवित रहती है। मेरे लिए यह अनुभव आश्चर्यजनक थे। प्रकृति तो है ही रहस्यमय, यथा- सागर, नदियाँ, पर्वत, मैदान, ज्वालामुखी, झीलें, ग्लेशियर, द्वीप कितना कुछ रहस्यों से भरा, अनजाना, अनचीन्हा, दुर्लभ, दुर्गम ! बड़ा खतरनाक होता है इनके प्रति आदिम सम्मोहन और वह सम्मोहन मैंने अपने में पाया। मैंने दुर्गम रास्तों पर जाने का खतरा भी उठाया। घने जंगलों में दुर्लभ पक्षियों, जानवरों को करीब से देखा। आदिवासियों के संग रोमांचक समय गुजारा और ऐसा सब करते हुए मैंने पाया कि मुझे यायावरी का नशा सा चढ़ गया है, तो मैंने अपना अलग घुमक्कड़ी हिसाब-किताब अपने जहन में बैठा लिया। जहाँ भी जाती हूँ एक छोटा सा सूटकेस, उतना ही वजनी जिसे मैं खुद उठा सकूँ। मोबाइल, कैमरा, दूरबीन और नोटबुक जिसमें हर दिन की घटना को रात में सोने से पहले लिख लेती हूँ। इस यात्रा-शैली में मेरे साथी विश्व मैत्री मंच के सदस्य रहे, जिनके साथ मेरी यात्रा का आनंद दुगना हो गया। मैं इस बात से चकित भी और गदगद भी रही कि भगवान कृष्ण हर देश में हर जगह मिले मुझे। क्या लीला है कृष्ण की ? हर देश में उनके मंदिर, उनके अनुयायी, भजन, रथयात्रा और सड़कों पर 'हरे रामा हरे कृष्णा' का संकीर्तन करते ढोल-मंजीरे बजाते भक्तगण। कृष्ण ने सरहदें मिटाने में बड़ी भूमिका अदा की है। मॉरीशस, यूरोप के दस देश, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, श्रीलंका, भूटान, दुबई, उज़्बेकिस्तान, रूस, इजिप्ट, वियतनाम, कंबोडिया, थाईलैंड इत्यादि देशों की यात्रा मैंने सन 2004 से अब तक की है। आगे योजना है स्वीडन और नॉर्वे जाने की।
प्र.(9.) आपने एक संयुक्त उपन्यास भी लिखा है "हवा में बंद मुट्ठियाँ", जो यात्री प्रकाशन से प्रकाशित हुआ और उसका दूसरा संस्करण किताबवाले प्रकाशन से "ख्वाबों के पैरहन " नाम से प्रकाशित हुआ। नाम बदलने की वजह भी बताएं और यह भी कि लेखन के दौरान आप किन रोचक प्रसंगों से गुजरी ?
उ:-
यह नायिका रेहाना की 'रीती' रह गई जिंदगी की कहानी है, जो अपने आत्मीय जनों की सुख सुविधाएं जुटाने की खातिर किसी भी गरीब परिवार की हो सकती है। मुस्लिम संस्कृति पर लिखा गया यह उपन्यास नायिका रेहाना के साहसिक फैसले को रेखांकित करता है। जो जायज-नाजायज विवाह संबंधों के द्वारा वंशबेल बढ़ाने को इच्छुक परिवार की सोच को झकझोर कर रख देता है।
इसका उर्दू अनुवाद भी हो चुका है और इसे हम पाकिस्तान ले जाना चाहते थे, इसीलिए इसका नाम बदलकर "ख्वाबों के पैरहन" रखा गया और किताबवाले पब्लिकेशन ने इसे नए रूप सज्जा से छापा, लेकिन अब शायद पाकिस्तान जाना संभव नहीं है। कई बार लेखक सरकार की नीतियों का शिकार होता है।
वैसे सोशल मीडिया में इस उपन्यास ने काफी लोकप्रियता अर्जित की, पचास हज़ार पाठकों द्वारा इसे पढ़ा जाना संयुक्त रूप से मेरे और प्रमिला वर्मा के लेखन की सफलता है।
प्र.(10.) आप विभिन्न विमर्शों जैसे स्त्री विमर्श मजदूर विमर्श आदि से कैसे जुड़ीं ?
उ:-
पश्चिम के स्त्री आंदोलन और स्त्री विमर्श से तुलना करते हुए हमारे योग्य विद्वान भारतीय परिपेक्ष में स्त्री संघर्ष की उपेक्षा कर जाते हैं। राष्ट्रवादी आंदोलनकर्त्ता स्त्री की तत्कालीन दशा में सुधार तो लाना चाहते हैं, लेकिन उसे परंपरागत परिवार के दायरे में सीमित रखकर और सामाजिक स्तर पर स्त्री की देवी की छवि निर्मित करके जहाँ न तो स्त्री को आजादी हैं और न उसकी अस्मिता। मेरे मन में इन बातों को लेकर खलबली मची रहती थी और मैं अपने लेखन से इसके खिलाफ हल्ला बोलना चाहती थी। उस समय मुझे समर लोक में “अंगना” और नवभारत टाइम्स में “मानुषी” स्त्री विषयक स्तंभ मिले, जिनमें मैं बहुत मेहनत करके स्त्री की दशा के सारे सामाजिक आंकड़े जुटाकर लेख लिखती थी। मैंने 10 वर्ष तक स्तंभों को लिखते हुए सारे लेख एकत्रित कर उनमें और अधिक कार्य कर स्त्री विमर्श की पुस्तक तैयार की ”मुझे जाने दो माँ” यह पुस्तक विभिन्न विद्यालयों में संदर्भ पुस्तक के रूप में जारी की गई और इस पुस्तक पर मुझे राजस्थान के एक डीम्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की मानद उपाधि भी मिली। इस पर हंस में स्तंभकार दिनेश कुमार ने अपने स्तंभ में लिखा कि इसे कहते हैं स्त्री विमर्श की पुस्तक, जिसमें स्त्री के तमाम पक्षों की पड़ताल की गई है। मैं अपनी कविताओं के जरिए मजदूर विमर्श से जुड़ी। मेरी कविताएँ नमक का स्वाद, मजदूर, बसन्त नहीं आता आदि मजदूर के शोषण और समाज में उनकी स्थिति पर तीखा प्रहार है।
प्र.(11.) अपनी कर्मभूमि मुम्बई जहाँ आप 40 वर्ष रहीं, इतने लम्बे समय को रेखाँकित करने वाली कोई रचना तो अवश्य लिखी होगी आपने ?
उ:-
मुंबई की सरज़मी पर जब मेरा पहला कदम पड़ा था, तो सोचा न था यहाँ जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा गुज़रेगा। कुछ सुनहले, कुछ धूपहले, कुछ चितकबरे और बहुत अधिक स्याह काले पल। बहुत अधिक इसलिए कि जबलपुर से 3 महीने के हेमंत को लेकर सपनों से लदी-फदी आई थी। पत्रकार बनने का जोखिम मेरे बेचैन मन में हड़कंप मचा रहा था। धीरे-धीरे पत्रकारिता में पाँव जमने लगे। धर्मयुग, नवभारत टाइम्स आदि में फीचर स्तंभ भी लिखने लगी। छोटा सा घर भी बस गया, लेकिन फिर सब कुछ खत्म। न बेटा हेमंत रहा, न पति। जब होश आया तो लगा हेमंत की अकाल मृत्यु के पन्नों को आत्मसात कर मुझे मुंबई का कर्ज़ उतारना है। उसने जो दिया और जो लिया उसकी फितरत। पर मुझे 40 साल का हिसाब चुकता करना है।
मुंबई की उन जगहों को मैं कैसे भूल सकती थी, जिन्होंने मुझे जिंदगी का फलसफा समझाया। तो मैं कोलंबस की तरह की यात्राओं से जुड़ा इतिहास, संस्कृति, नदियाँ, पर्वत, समंदर को लांघती पहुँच गई अद्भुत निराली खुद को भारत के हर शहर से अलहदा महसूस कराती मुंबई, आमची मुंबई की बाहों में। मुंबई के जर्रे-जर्रे को प्रत्यक्ष देखभाल कर, डूब कर मैंने इस पुस्तक में लिखने की कोशिश की है। 40 सालों में मुंबई को जितना नहीं जाना उतना, बल्कि उससे कहीं अधिक इस पुस्तक के लेखन के दौरान जाना। इस किताब को मुंबई की संपूर्ण जानकारी और पर्यटन का दस्तावेज बनाने में और शोध छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ बनाने में मुझे 5 से भी अधिक साल लग गए। इस पुस्तक को किताब वाले प्रकाशन से 2019 में प्रकाशित किया गया। मातृभारती में यह 50 एपिसोड में धारावाहिक प्रकाशित हुई और उसे अब तक दो लाख पाठक डाउनलोड करके पढ़ चुके हैं।
प्र.(12.) कोई पुस्तक, संकलन या ड्राफ्ट्स जो इस संबंध में प्रकाशित हो तो बताएँगे ?
उ:-
कथा सँग्रह :-
बहके बसँत तुम,
बहते ग्लेशियर,
प्रेम सम्बन्धों की कहानियाँ,
आसमानी आँखों का मौसम,
अमलतास तुम फूले क्यों ?
उपन्यास:-
मालवगढ की मालविका,
दबे पाँव प्यार,
टेम्स की सरगम,
ख्वाबों के पैरहन (संयुक्त उपन्यास),
लौट आओ दीपशिखा,
कैथरीन और नागाओं का रहस्य।
अन्य:-
फागुन का मन (ललित निबँध सँग्रह)
मुझे जन्म दो माँ (स्त्री विमर्श)
नीले पानियों की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)
करवट बदलती सदी आमची मुंबई (मुम्बई का परिवेश)
तुमसे मिलकर (कविता संग्रह)
पथिक तुम फिर आना (यात्रा संस्मरण)
रूबरू हम तुम (साक्षात्कार संग्रह)
मेरे घर आना जिंदगी (आत्मकथा)
मुस्कुराती चोट( लघुकथा संग्रह)
साझा संकलन संपादित:-
नहीं अब और नहीं (विभाजन तथा साम्प्रदायिकता पर लिखी मुम्बई के कथाकारों की कहानियों का संकलन)
बाबुल हम तोरे अँगना की चिडिया (कन्या भ्रूण हत्या पर लिखी कविताओं का संकलन)
चिंगारी( कविता संकलन)
सीप में समुद्र ( लघुकथा संकलन)
क्षितिज और भी हैं (लघुकथा संकलन)
अन्य भाषाओं में अनूदित पुस्तकें
बहके बसँत तुम मराठी में,
बहते ग्लेशियर ओडिया में,
टेम्स की सरगम अँग्रेज़ी में Romancing The Thams,
ख्वाबों के पैरहन उर्दू में,
अन्य कहानियों के अँग्रेज़ी; तमिल; गुजराती; बंगाली में अनुवाद,
मुझे जन्म दो माँ अँग्रेज़ी में let me born mother,
करवट बदलती सदी आमची मुंबई मराठी में अनुवाद।
प्र.(13.) इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:-
पुरस्कार:-
कालिदास पुरस्कार (1990),
महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी द्वारा मुंशी प्रेमचँद पुरस्कार (1997),
साहित्य शिरोमणी पुरस्कार (2001),
प्रियदर्शिनी अकादमी पुरस्कार (2004),
महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार (2004),
बसँतराव नाईक लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (2004),
कथाबिम्ब पुरस्कार (2004),
कमलेश्वर स्मृति पुरस्कार (2008),
प्रियँका साहित्य सम्मान (2011),
अँतरराष्ट्रीय सृजन श्री सम्मान थाइलैंड (2011),
अँतरराष्ट्रीय सृजन गाथा सम्मान ताशकँद (2012),
सारथी साहित्य शिरोमणी पुरस्कार (2012),
लघुकथा रत्न सम्मान पटना (2012),
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा नारी लेखन पुरस्कार, भोपाल (2014),
महाराष्ट्र साहित्य अकादमी द्वारा राज्य स्तर का हिन्दी सेवा सम्मान (2014),
लघुकथा सारस्वत सम्मान राँची (2014),
अभियान संस्था लखनऊ द्वारा उत्तर साहित्यश्री सम्मान (2014),
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय द्वारा दलित साहित्य सम्मान (2011),
अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार, मॉरिशस (2001),
अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान, कम्बोडिया (2013),
साहित्य समर्था पत्रिका जयपुर द्वारा शिक्षाविद पृथ्वीनाथ भान साहित्य सम्मान 2019 टेम्स की सरगम पर,
शिल्पी चड्ढा स्मृति साहित्यकार सम्मान वर्ष 2019 दिल्ली।
प्र.(14.) कार्यक्षेत्र के इतर आप आजीविका हेतु क्या करते हैं तथा समाज और राष्ट्र को अपने कार्यक्षेत्र के प्रसंगश: क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:-
अपने इकलौते 23 वर्षीय कवि पुत्र हेमंत के निधन के बाद मैंने अपने पति को भी कैंसर की बीमारी में खो दिया। मुंबई में जेजेटी यूनिवर्सिटी में कोऑर्डिनेटर के पद से वॉलंटरी रिटायरमेंट लेकर मैं भोपाल आ बसी... और एकाकी जीवन जी रही हूँ। मेरी आजीविका बैंकों में जमा निधि और सरकार के द्वारा प्रदत्त कलाकार पेंशन से चलती है।
युवा पीढ़ी के लेखकों के लिए मेरा यही संदेश है कि खूब पढ़ें। पढ़ने से ज्ञान का दायरा बढ़ता है। कलम में निखार आता है। मिर्जा गालिब ने कहा था-
"सौ शे'र पढ़ो, तब एक लिखो।"
आज का युवा लेखक अपने लेखन का पहला ड्राफ्ट ही छपवा लेता है और पुस्तक फ्री में बांट कर खुद को लेखक समझने की भूल करता है। अपने लिखे को अपने मित्रों और वरिष्ठ साहित्यकारों को पढ़ाकर, उनकी सलाह लेकर ही पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहिए। इस फार्मूले पर साहित्य में वरिष्ठ लेखक भी चले हैं, इसीलिए आज वे साहित्य में मील का पत्थर है। कम लिखें पर स्तरीय लिखें।
आप यूँ ही हँसती रहें, मुस्कराती रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !
नमस्कार दोस्तों !
मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !
हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com
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