आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री दिव्या श्री की असाधारण कविता.......
सुश्री दिव्या श्री |
मेरे कमरे में
अक्सर रहती है तकिये के नीचे एक किताब
जिसके पन्ने लेते हैं सांस
रात के बारह बजे के बाद
पिता चाहते थे
मैं बनूँ डाॅक्टर या इंजीनियर
जिससे बढ़ती रहे वर्षों की परंपरा
मैं हमेशा उनके इस परंपरा के ख़िलाफ़ रही
एक दिन उनके विरुद्ध ही बोल बैठी
मैं बनूँगी किसान
वे गुस्से से चीख़ पड़े मुझ पर
लड़कियाँ खेती नहीं करतीं
चूल्हा फूँकती हैं
वे जानते थे आँसुओं की बूंदों से चूल्हे नहीं जला करते !
वे अपने दुःख को छिपाते हुए बोले
मैं हूँ किसान
ग़ौर से देखा मैंने
कहते हुए अपने ही गुनाहगार लग रहे थे वे
उन्हें बहुत उम्मीद थी मुझसे
मैंने कवि बनकर कविता की खेती शुरू कर दीं
कागज़ जमीन बन गई, कलम हल
इस बार उन्हें फूटी नजर नहीं सुहा रही थी मैं !
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