मैसेंजर ऑफ आर्ट के आदरणीय पाठकगण !
आइये, पढ़ते हैं, कवयित्री प्रेमलता ठाकुर की वर्त्तमान परिदृश्य पर अद्वितीय रचना........
जनतंत्र के बाजार में-
सभी बाजीगर हो गए
अखाड़े में उतरे सभी
जीत के दावेदार हो गए
सबूत बिकते है
इनाम बिकता है-
पहचान बिकती है
ऊंचे कद बिकते है
योजनाएं बिकती है
व्यापार बिकता है
विचार बिकते है
संभावनाएं बिकती है-
पैमाना बिकता है
सोहरत बिकती है
तालीम बिकता है
बेशर्मी बिकती है
चुप्पी बिकती है
दबाब बिकता है
दावें बिकते है -
मर्ज बिकता है
मिलाबट बिकती है
आदमी बिकता है-
खरीदार मिल जाए तो
ईमान बिकता है
पहरेदारी की नींद
बिकती है-
पुरस्कार बिकता है,
संभावनाएं खुदगर्जी-
पाखंडियो की
मुनाफे के बाजार में
आबरू बिकती है
जीत और हार के
हर प्रतिमान बिकने लगे
जनतंत्र के बाजार में !
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