आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान प्रभात रंजन के विचारफलक........
पिछले एक सप्ताह के दौरान किन्ही कारणों से अपने विश्वविद्यालय के अनेक प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं से मिला। सभी ग्रेजुएशन स्तर के थे। जिस बात ने बहुत प्रभावित किया उनमें से अधिकतर तकनीकी रूप से दक्ष थे और तकनीक के माध्यम से हिंदी में जितनी संभावनाएँ उभर रही थीं उनसे अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे। डिजिटल संसार की संभावनाओं और सीमाओं को बहुत अच्छी तरह समझने वाले लोग थे। यही नहीं समकालीन साहित्य और युवा लेखकों के बारे में भी उनका ज्ञान अच्छा था। कुछ ने इसको लेकर बहुत मज़ेदार टिप्पणियाँ की कि किस लेखक की मार्केटिंग की रणनीति क्या है ? सभी की जानकारी से कुछ न कुछ प्रभावित हुआ, लेकिन इस बात से आश्चर्यचकित रहा कि उनमें से किसी ने हिंदी साहित्य की परम्परा को लेकर कोई बात नहीं की। एक समूह में मैंने बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित पहली हिंदी किताब की चर्चा की तो किसी ने भी रेत समाधि पढ़ने में या लेखिका गीतांजलि श्री के बारे में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई। जबकि मैं निजी तौर इस घटना को आधुनिक हिंदी की आज तक की सबसे बड़ी घटना मानता हूँ। ख़ैर, एक बात समझ में आई कि हिंदी की नई पीढ़ी भविष्य का मुक़ाबला करने के लिए पूरी तरह तैयार है, लेकिन हिंदी साहित्य की विराट परम्परा के बारे में वे कोर्स से बाहर हटकर अधिक बातचीत नहीं करते। न उनको अधिक पढ़ते हैं। एक बात और फेसबुक पर ‘अच्छा’ लिखने वाले हर लेखक के बारे में उनको अच्छे से पता है।
एक बात और जिस युवा लेखक मैं सबसे लोकप्रिय समझ रहा था असल में उसकी लोकप्रियता उतनी नहीं है बल्कि वह लेखक सबसे अधिक लोकप्रिय है जिसको मैं ख़ास तरजीह नहीं देता था। नाम तो नहीं लिखूँगा लेकिन एक बात है कि आज के समय में ज्ञान नई पीढ़ी से मिलकर ही बढ़ता है।
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