आइये, मैसेंजर ऑफ़ आर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री प्रीति अज्ञात की मर्मस्पर्शी कविता.......
जैसे मनुष्य के जीवन से विलुप्त हो रहा प्रेम
जैसे नहीं पूछते अब अपनों की कुशल क्षेम
जैसे हृदय से लुप्त होती जा रही संवेदना
जैसे विक्षिप्त है मानस की हर चेतना
जैसे रिश्तों में खोता जा रहा विश्वास
जैसे अदृश्य है वातावरण से उल्लास
जैसे शब्दों के बदल रहे हैं अर्थ
जैसे दर्द को साझा करना व्यर्थ
जैसे भटक गई हैं मन की सारी दिशाएं
जैसे उदास सी चलती हैं हवाएं
जैसे जारी है खोज मानवता की
ठीक वैसे ही खोज रहे हैं हम गौरैया
गौरैया जो चहकती थी कभी मुंडेर पर
गौरैया जो मचलती थी आँगन में दिन भर
गौरैया जो लाती थी दाने चुन चुन
गौरैया जो गाती थी मीठी प्रेम धुन
वह गौरैया विलुप्त हुई नहीं,
कर दी गई
प्रेम से पुकारो तो
आती है वह आज भी
देती है आवाज भी
अब भी बनाती है घर
ईंटों के बीच के खुले हिस्से में
बल्ब के पीछे वाले छज्जे में
रोशनदान की जाली पर
पेड़ की किसी डाली पर
हमने खो दिया है प्रेम
और ढूंढ रहे हैं गौरैया !
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं। इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय।
0 comments:
Post a Comment