आइये, मैसेंजर ऑफ़ आर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान उज्ज्वल मल्हावनी की अद्वितीय कविता.......
मैं जब स्कूल जाता था
ये शहर बहुत बड़ा हुआ करता था
(अब मैं बड़ा हूँ
और ये शहर जाने कितना छोटा)
घर से स्कूल की दूरी
बड़ी लंबी लगती थी
लगता था जैसे चलते-चलते
इन पैरों से बंधे जूतों में
किसी ने रेत भर दी हो
पर जब स्कूल से घर आता था
तो वो दूरी
जल्दी पूरी हो जाती थी
तब तो पैर रुई जैसे हल्के
लगते थे
और घर पहुँचते-पहुँचते
जब घर का दरवाजा दिखता था
तो मानो जूते पँख बन गए हों
वो दूरी हर बार दौड़कर ही पूरी हुई
उन दिनों बस्ता अब के दिनों की तरह
उतना भारी नहीं होता था
फिर भी बस्ते को कंधों से उतारकर
जैसे दुनिया भर का बोझ
हम उतार देते थे
मम्मी के हाथों से दूध का ग्लास लेकर
उसे एक साँस में खत्म करने की
कोशिश होती थी
हर बार उस गिलास को खाली करने में
वक्त कुछ ज्यादा लगता था
बहुत जल्दी हुआ करती थी
घर के पीछे
हमारे अड्डे पर जाने की
जहाँ अक्सर मेरे दोस्त
इंतज़ार कर रहे होते थे
मेरे आने का
मुझसे ज्यादा इंतज़ार
मेरे बैट का होता था
आज भी कभी-कभी मैं
स्कूल में होता हूँ
और कभी अपने हाथ में
क्रिकेट का एक छोटा बैट लिए
दुनिया जीतने निकलता हूँ
अगर ये सपने न होते
तो वो बच्चा
कहीं खो जाता।
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